शनिवार, 26 मई 2012

सद्भावना के वटवृक्ष रोशन कोटवी -शकूर अनवर

धन दौलत गर पास नहीं, किरदार सुदामा जैसा रख
तेरा चाहने वाला कोई मोहन भी हो सकता है      - रोशन

अभी पिछली 1 जुलाई 2011 को हमारे नगर के वरिष्ठ एवं उस्ताद शायद रोशन कोटवी ने अपने निवास पर जीवन के 83 वर्ष पूरे करने के उपलक्ष में प्रो. एहतेशाम अख्तर की अध्यक्षता में एक वृहद् काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया। रोशन कोटवी साहब ऐसी काव्य-गोष्ठियों का आयोजन पिछले 3-4 वर्षों से निरन्तर कर रहे थे। काव्य-गोष्ठी में कोटा नगर के कवि-शायरों के अलावा कैथून, बूंदी, इटावा, भवानीमंडी एवं अजमेर से भी साहित्यिकि मित्रों ने शिरकत करके इस कार्यक्रम को सफल बनाया। इस कामयाब काव्य-गोष्ठी की साहित्यिक क्षेत्रों में काफी चर्चा रही।

मगर होना कुछ और ही था, ज़िन्दगी हमसे कैसे-कैसे खेल खेतली है। 12 जुलाई को फोन पर सूचना मिली की रोशन कोटवी साहब का अचानक निधन हो गया है। नगर में शोक की लहर दौड़ गई, सभी स्तब्ध रह गये। लोग नम ऑंखों और भारी मन से उनकी अन्तिम यात्रा में शामिल हुए और उसी दिन शाम 5 बजे हजीरा के ऐतिहासिक क़ब्रिस्तान में उन्हें सुपुर्दे-ख़ाक कर दिया गया। ग़ालिब का शेर याद आता है:-

एक हंगामे पे मौकूफ है घर की रौनक़
नोहा-ए-ग़म ही सही, नगम-ए-शादी न सही

1 जुलाई 1928 ई. को कोटा नगर के मशहूर उस्ताद शायर लाल मोहम्मद सा. जौहर कोटवी के घर एक पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम इस्हाक मोहम्मद रखा गया, जो आगे चलकर साहित्यिक दुनिया में रोशन कोटवी के नाम से मशहूर हुए। आपने अलीगढ़ से अदीब कामिल की परीक्षा पास की। जीवन यापन के लिये उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा। यद्यपि उनका खानदानी पेशा जरदोज़ी था लेकिन शुरू में बीड़ी बनाने का काम किया बाद में एक प्राइवेट स्कूल में उर्दू के अध्यापक नियुक्त हुए। आपने बहुत ही धैर्य और हौसले के साथ अपनी ज़िन्दगी को जिया है। कोटा की शाइरी को उन्होंने विशिष्ट पहचान तथा गरिमा प्रदान की।

रोशन सा. ने ग़ज़लों के अलावा, नज़्में, क़त्आत, रूबाइयॉं, मुसद्दस तज़ामीन आदि विधाओं में भी अपना रचनाकर्म किया,

मगर ग़ज़ल को ही मुख्य रूप से अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। अंजुमन-ए-शेरो-अदब, ‘संगम’ तथा ‘विकल्प’ जन सांसर्कृतिक मंच, कोटा के वे संस्थापक सदस्यों में से थे। ‘संगम’ व ‘विकल्प’ की शायद ही कोई ऐसी गोष्ठी या गतिविधि रही हो, जिसमें वे पूरी सक्रियता के साथ उपस्थित न रहे हों।

इसी वर्ष प्रेमचन्द जयन्ती के अवसर पर प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से उन्हें सम्मानित किया गया तथा पूर्व में वर्ष 2000-2001 में राजस्थान उर्दू अकादमी द्वारा ‘‘क़मर वाहिदी एवार्ड’’ से नवाज़ा गया। आपका काव्य-संग्रह छपने को तैयार था, लेकिन दुर्भाग्य से मंजरे-आम पर नहीं आ सका।

रोशन कोटवी उर्दू साहित्य की शानदार परम्परा के जीवन्त शायर थे। उन्होंने अपने रचना कर्म से सद्भावना का माहौल बनाया और हमारी गंगा-जमनी तहज़ीब (साझा-संस्कृति) को मजबूत बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान किया। उनकी रचनाएँ कौमी एकता, भाईचारा एवं देश प्रेम का संदेश देते हुए वर्तमान व्यवस्था के प्रति आक्रोश एवं सामाजिक अन्याय के विरूद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द करती है। उनके यहाँ प्रेमपरक विषयों के माध्यम से हमारी ज़िन्दगी का सटीक चित्रण प्रस्तुत हुआ है।

उनके कुछ शेर मुलाहिज़ा करें:-

क़ातिल का क्या दीनो-मज़हब
क़ातिल बस क़ातिल होता है

इतना पैदा तो हाथों में दम कीजिये
शौक़ से फिर मेरा सर कलम कीजिये

बुत कदे में भी लो बन्दगी के मज़े
और कुछ देर सैरे-हरम कीजिये

खूऐ-उल्फत न हो गर इन्सॉं में
आदमीयत तबाह हो जाये।


सख्त मुश्किल है आजकल रोशन
दोस्तों से निबाह हो जाये


इन अशआर को पढ़कर महसूस किया जा सकता है कि रोशन सा. हमारे आस-पास के परिवेश पर किस क़दर गहरी नज़र रखते हैं। उनके यहॉं श्रृंगार के साथ-साथ अन्याय और अत्याचार के प्रति ग़मो-गुस्सा भी है, गरीबों एवं कमज़ोरों के लिये हमदर्दी भी, वतनपरस्ती की धारा भी है और कौमी एकता का ठाठें मारता समन्दर भी उनकी व्यापक सामाजिक दृष्टि और संवेदनशीलता उन्हें अग्रिम पंक्ति में खड़ा कर देती है। देशभर में अनेक शागिर्दों को शाइरी की ओर प्रेरित करने की उनकी भूमिका ने उन्हें उस्ताद शायर का सम्माननीय रूतबा प्रदान किया।

रोशन कोटवी सा. का रचनाकर्म हमेशा शोषित-पीड़ित मानवता के पक्ष में रहा है। इन्सान, दोस्ती और सामाजिक बराबरी उनकी शाइरी का मुख्य उद्देश्य रहा है। उन्होंने ‘मुहब्बत’ जो शाश्वत है, उस आध्यात्मिक मुहब्बत को सांसारिक बनाकर बिखरे हुए समाज में सुख-समृद्धि की कल्पना की है, भाईचारे का वातावरण बनाया है। वह अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उन के द्वारा जीवन के अंतिम क्षणों तक सक्रियता के साथ किए गए यह कार्य हमारे लिए सदैव अनुकरणीय रहेंगे। जिगर मुरादाबादी के इस शेर के साथ एक बगर और उन्हें याद करता हूँ।

जानकर मिन्जुमलाए-ख़ासाने-मैखाना मुझे
मुद्दतों रोया करेंगे जाओं-पैमाना मुझे।


-शमीम मंजिल, सेठानी चौक, श्रीपुरा, कोटा-324006 (राजस्थान)

शुक्रवार, 18 मई 2012

मैं चलूंगा - डॉ. शान्तिलाल भारद्वाज ‘राकेश’ की एक कविता




डॉ. शान्तिलाल भारद्वाज ‘राकेश’ का जन्म 24 जून 1932 को झालावाड़ जिले की खानपुर तहसील के एक ग्राम जोलपा के ब्राह्मण परिवार में हुआ था। डॉ. राकेश ने विषम पारिवारिक परिस्थितियों के होते हुए भी उच्च शिक्षा कोटा, जयपुर, उदयपुर में की। डॉ. राकेश अपने जीवन के विद्यार्थी काल से ही सामाजिक नेतृत्व, राजनैतिक सक्रियता एवं साहित्य-सृजन में उन्मुख थे। 

डॉ. राकेश हिन्दी व राजस्थानी में समान रूप से रचना करते थे। डॉ. राकेश ने शोध, समालोचना, उपन्यास, जीवनी, नाटक, कहानी, कविता आदि कई विधाओं और शैलियों में साहित्य रचना की। डॉ. राकेश की एक दर्जन से अधिक हिन्दी, राजस्थानी की पुस्तकें तथा अनूदित पुस्तकें प्रकाशित हैं। डॉ. राकेश, राजस्थान साहित्य अकादमी और राजस्थान भाषा अकादमी से सक्रिय रूप से जुड़े रहे। साथ ही अन्य अनेक साहित्यिक, सांस्कृतिक सामाजिक संस्थाओं में भी अपना मार्गदर्शक योगदान देते रहे। वे ‘मधुमती’ ‘जागती जोत’ के सम्पादक तथा राजस्थानी भाषा साहित्य संस्कृति अकादमी के अध्यक्ष भी रहे।

डॉ. राकेश सदैव अपनी प्रगतिशील प्रवृत्तियों के साथ समकालीन विशेषतः आधुनिक लेखन व युवा लेखकों से सम्पर्कित रहे।
पिछले वर्ष डॉ. राकेश हमारे बीच नहीं रहे। उन के जीवन के आत्मीय प्रसंगों की स्मृतियाँ और साहित्यिक रचनाएँ हमारी धरोहर हैं। वे सदैव आरणीय एवं स्मरणीय रहेंगे। अभिव्यक्ति के 38वें अंक में उन की दो काव्य रचनाएँ प्रकाशित की गई हैं। उन में से उन की एक कविता यहाँ प्रस्तुत है-
                                                                                                                              - अम्बिकादत्त

'कविता'
मैं चलूंगा 
  •  डॉ. शान्तिलाल भारद्वाज ‘राकेश’
मैं चलूंगा
क्योंकि चलकर ही पहुँच पाया यहाँ तक

कौन जाने - और चला है कहाँ तक
यात्रा लम्बे सफर की

हाशिए पर ही खड़ी चुपचाप अब तक
देखना है तपस्या युग की
रहेगी बांझ कब तक।।

अनलिखा भवितव्य है इस त्रासदी का
हूँ अकेला भगीरथ शापित सदी का

चल पड़ा हूँ अब धरा पर
संतरण होगा नदी का।।

सूर्य मेरे!
लो विदा अध्याय के अगले चरण की
सांध्य वेला-दीपमाला के वरण की।।

रोशनी तो है विरासत यात्रा की
मैं चलूंगा
क्योंकि चलकर ही
पहुँच पाया यहाँ तक।।

रविवार, 13 मई 2012

डॉ. शान्तिलाल भारद्वाज ‘राकेश’ की एक 'राजस्थानी ग़ज़ल'


डॉ. शान्तिलाल भारद्वाज ‘राकेश’ का जन्म 24 जून 1932 को झालावाड़ जिले की खानपुर तहसील के एक ग्राम जोलपा के ब्राह्मण परिवार में हुआ था। डॉ. राकेश ने विषम पारिवारिक परिस्थितियों के होते हुए भी उच्च शिक्षा कोटा, जयपुर, उदयपुर में की। डॉ. राकेश अपने जीवन के विद्यार्थी काल से ही सामाजिक नेतृत्व, राजनैतिक सक्रियता एवं साहित्य-सृजन में उन्मुख थे।
डॉ. राकेश हिन्दी व राजस्थानी में समान रूप से रचना करते थे। डॉ. राकेश ने शोध, समालोचना, उपन्यास, जीवनी, नाटक, कहानी, कविता आदि कई विधाओं और शैलियों में साहित्य रचना की। डॉ. राकेश की एक दर्जन से अधिक हिन्दी, राजस्थानी की पुस्तकें तथा अनूदित पुस्तकें प्रकाशित हैं। डॉ. राकेश, राजस्थान साहित्य अकादमी और राजस्थान भाषा अकादमी से सक्रिय रूप से जुड़े रहे। साथ ही अन्य अनेक साहित्यिक, सांस्कृतिक सामाजिक संस्थाओं में भी अपना मार्गदर्शक योगदान देते रहे। वे ‘मधुमती’ ‘जागती जोत’ के सम्पादक तथा राजस्थानी भाषा साहित्य संस्कृति अकादमी के अध्यक्ष भी रहे।

डॉ. राकेश सदैव अपनी प्रगतिशील प्रवृत्तियों के साथ समकालीन विशेषतः आधुनिक लेखन व युवा लेखकों से सम्पर्कित रहे।
पिछले वर्ष डॉ. राकेश हमारे बीच नहीं रहे। उन के जीवन के आत्मीय प्रसंगों की स्मृतियाँ और साहित्यिक रचनाएँ हमारी धरोहर हैं। वे सदैव आरणीय एवं स्मरणीय रहेंगे।  अभिव्यक्ति के 38वें अंक में उन की दो काव्य रचनाएँ प्रकाशित की गई हैं। उन में से उन की एक राजस्थानी ग़ज़ल यहाँ प्रस्तुत है-

                                                                                                                               - अम्बिकादत्त


'राजस्थानी  ग़ज़ल'
  • डॉ. शान्तिलाल भारद्वाज ‘राकेश’

आर छै न पार छै
नाव छै’र धार छै।।

सांस एक पावणी
धूंकणी उधार छै।।

कांच को बणज करै
दोगला बजार छै।।

मखमली लबास का
पोत तार-तार छै।।

हेत कै समंदरां
घूंट-ल्यां तो खार छै।।

धार छोड़ फूटल्यां,
यो कस्यो बच्यार छै।।

ये बखत का ढावला
एक दिन उतार छै।।

बोझ सब उलीज द्यो
नाव आर पार छै।।


बुधवार, 9 मई 2012

कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ -शहरयार


शहूर शायर शहरयार हाल ही में हमारे बीच से गुजर गये। उन्होंने प्रगतिशील शायरी के कलात्मक-पक्ष को गहरा किया। फिल्म ‘उमरावजान’ के लिए लिखी गई ग़ज़लों व नज़्मों से उन्हें विशेष ख्याति मिली। मिर्ज़ा गालिब एवार्ड एवं भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी उन्हें सम्मानित किया गया। अपने करीबी जनवादी लेखक साथी डॉ. कुँवरपाल सिंह की स्मृति में उनके द्वारा लिखी एक कविता और दो ग़ज़लें अभिव्यक्ति के 38वें अंक में प्रकाशित की गई हैं,  यहाँ उन की एक ग़ज़ल प्रस्तुत है-  


ग़ज़ल


कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ
कि आज धूप नहीं निकली आफताब के साथ

तो फिर बताओ समन्दर सदा को क्यूँ सुनते
हमारी प्यास का रिश्ता था जब सराब के साथ

बादिल अजीब महक साथ ले के आई है
नसीम रात बसर की किसी गुलाब के साथ

फिजाँ में दूर तलक मरहबा के नारे हैं
गुजरने वाले हैं कुछ लोग यहाँ से ख्वाब के साथ

जमीन तेरी कशिश खींचती रही हम को
गये जरूर थे कुछ दूर महताब के साथ


मंगलवार, 8 मई 2012

तुम्हारे शहर में कुछ भी हुआ नहीं है क्या? -शहरयार

शहूर शायर शह्रयार हाल ही में हमारे बीच से गुजर गये। उन्होंने प्रगतिशील शायरी के कलात्मक-पक्ष को गहरा किया। फिल्म ‘उमरावजान’ के लिए लिखी गई ग़ज़लों व नज़्मों से उन्हें विशेष ख्याति मिली। मिर्ज़ा गालिब एवार्ड एवं भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी उन्हें सम्मानित किया गया। अपने करीबी जनवादी लेखक साथी डॉ. कुँवरपाल सिंह की स्मृति में उनके द्वारा लिखी एक कविता और दो ग़ज़लें अभिव्यक्ति के 38वें अंक में प्रकाशित की गई हैं,  यहाँ उन की एक ग़ज़ल प्रस्तुत है- 


ग़ज़ल

तुम्हारे शहर में कुछ भी हुआ नहीं है क्या?
कि तुमने चीख़ों को सचमुच सुना नहीं है क्या?


तमाम ख़ल्के-ख़ुदा इस जगह रूकी क्यों है?
यहाँ से आगे कोई रास्ता नहीं है क्या

लहू-लुहान सभी कर रहे हैं सूरज को
किसी को ख़ौफ़ यहाँ रात का नहीं है क्या?

मैं एक ज़माने से हैरान हूँ कि हाकिमे-शहर
जो हो रहा है उसे देखता नहीं है क्या?

उजाड़ते हैं जो नादाँ इसे उजड़ने दो
कि उजड़ा शहर दोबारा बसा नहीं है क्या?

शनिवार, 5 मई 2012

मौत तू जीती है ..... वो हारा नहीं -शहरयार

शहरयार
शहूर शायर शहरयार हाल ही में हमारे बीच से गुजर गये। उन्होंने प्रगतिशील शायरी के कलात्मक-पक्ष को गहरा किया। फिल्म ‘उमरावजान’ के लिए लिखी गई ग़ज़लों व नज़्मों से उन्हें विशेष ख्याति मिली। मिर्ज़ा गालिब एवार्ड एवं भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी उन्हें सम्मानित किया गया। अपने करीबी जनवादी लेखक साथी डॉ. कुँवरपाल सिंह की स्मृति में उनके द्वारा लिखी एक कविता और दो ग़ज़लें अभिव्यक्ति के 38वें अंक में प्रकाशित की गई हैं,  यहाँ उन की कविता प्रस्तुत है-  


 डॉ. कुँवरपाल सिंह की स्मृति में लिखी एक कविता 



मौत तू जीती है .....
        वो हारा नहीं
शहर में मौजूद होता मैं, तो तुझको देखता
ऐ हवा!
तू मेरा सूरज बुझाती किस तरह
वो सरापा ज़िन्दगी था
रोशनी... बस रोशनी था

    ख़्वाब देखे और दिखाये उम्र भर
    ख़्वाब उसके पास इतने थे
    कि नींदें कम पड़ीं
    इस ज़मीं के वास्ते
    आसमां से उसने झगड़ा कर लिया
    जो कहा करके दिखाया

अहद... मेरे अहद की पहचान था वह
कुछ अजब ही और अलग इन्सान था वह
वो जिया तो अपनी शर्तों पर जिया
कोई समझौता कहाँ उसने किया!
ज़िन्दगी के खेल में सच है यही
मौत तू जीती है... वो हारा नहीं