सोमवार, 25 जून 2012

बिना कलम के खुद की जिनगी लिखती है बाबू।

शान्ति सुमन के दो गीत





इसी शहर में

इसी शहर में ललमुनिया भी
रहती है बाबू
आग बचाने खातिर कोयला
चुनती है बाबू

पेट नहीं भर सका
रोज के रोज दिहाड़ी से
मन करे चढ़कर गिर
जाये उंची पहाड़ी से

लोग कहेंगे क्या यह भी तो
गुनती है बाबू

चकाचौंध बिजलियों
की जब बढ़ती है रातों में
खाली देह जला--
करती है मन की बातों में

रोज तमाशा देख आंख से
सुनती है बाबू

तीन अठन्नी लेकर
भागी उसकी भाभी घर से
पहली बार लगा कि
टूट जाएगी वह जड़ से

बिना कलम के खुद की जिनगी
लिखती है बाबू।

खुशी के आँसू

उनके घरों की तस्वीरें हॅंसती हैं
अपने घर की दीवारें रोती हैं

जोड़ रही उंगली पर आधे
अपने बीते दिन को
कितने कब भूखे सोये बच्चे
लगे गड़ांसे मन को

बिना जले वह धुआं-धुआं होती है

दिनों से दीखा कुछ नहीं कभी
खुशी के आंसू जैसा
दरवाजे तक बहुत उड़ा हुआ
है कागज सांसों का

बदली हुई हवा नारे बोती है

नीदों भरे सपनों से उसको
हासिल नहीं हुआ जो
संगीत को उम्मीद के सुनते
जिला-जिला रखती जो

कठिन हौसले ही मन के मोती हैं।

० शांति सुमन
- 36, ऒफीसर्स फ्लैट्स, जुबली रोड, नार्दर्न टाउन, जमशेदपुर

रविवार, 17 जून 2012

शिवराम की स्मृति में दो दिवसीय आयोजन


शिवराम की स्मृति में दो दिवसीय आयोजन

जन-गण के पक्ष में रचनाकर्म करने के साथ उन तक पहुँचाना भी होगा


किसी ने कहा शिवराम बेहतरीन नाटककार थे, हिन्दी नुक्कड़नाटकों के जन्मदाता, कोई कह रहा था वे एक अच्छे जन-कवि थे, किसी ने बताया शिवराम एक अच्छे आलोचक थे, कोई कह रहा था वे प्रखर वक्ता थे, किसी ने कहा वे अच्छे संगठनकर्ता थे और हर जनान्दोलन में वे आगे रहते थे, एक लड़की कह रही थी, बच्चों को वे मित्र लगते थे। टेलीकॉम वाले बता रहे थे वे जबरदस्त ट्रेडयूनियनिस्ट थे, दूसरे ने बताया वे श्रेष्ठ अभिनेता और नाट्यनिर्देशक थे। भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ( यूनाइटेड ) के जिला सचिव बता रहे थे वे पार्टी के पोलित ब्यूरो के सदस्य थे, उन के देहान्त का समाचार मिलते ही एक और पोलित ब्यूरो सदस्य उन की अंत्येष्टी में कोटा पहुँचे थे और तब सब लोग कह रहे थे कि  शिवराम का निधन कोटा और राजस्थान के जनान्दोलन की बहुत बड़ी क्षति है तो वे कहने लगे कि यह कोटा की नहीं देश भर के श्रमजीवी जन-गण की क्षति है। पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व उन से देशव्यापी नेतृत्वकारी भूमिका की अपेक्षा रखता था।

तने सारे तथ्य शिवराम के बारे में सामने आ रहे थे कि हर कोई चकित था। शायद कोई भी संपूर्ण शिवराम से परिचित ही नहीं था। हर कोई उन का वह दिखा रहा था जो उस ने देखा, अनुभव किया था। इन सब तथ्यों को सुनने के बाद लग रहा था कि संपूर्ण शिवराम को पुनर्सृजित कर उन्हें पहचानने में अभी हमें वर्षों लगेंगे। फिर भी बहुत से तथ्य ऐसे छूट ही जाएंगे जो शायद उन के पुनर्सर्जकों के पास नहीं पहुँच सकें। जब वे सम्पूर्ण शिवराम का संपादन कर के उसे प्रेस में दे चुके होंगे तब, जब उस के प्रूफ देखे जा रहे होंगे तब और जब पुस्तक प्रकाशित हो कर उस का विमोचन हो रहा होगा तब भी कुछ लोग ऐसे आ ही जाएंगे जो फिर से कहेंगे, नहीं इस शिवराम को वे नहीं जानते, हम जिस शिवराम को जानते हैं वह तो कुछ और ही था।

शिवराम को हमारे बीच से गए एक वर्ष हो गया है। यहाँ कोटा में उन के पहले वार्षिक स्मरण के अवसर पर भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड), राजस्थान ट्रेड यूनियन केन्द्र और अखिल भारतीय जनवादी युवा मोर्चा ने श्रृद्धांजलि सभा का आयोजन किया।  प्रेस-क्लब सभागार में हुई श्रृद्धांजलि सभा दिल्ली से आए मुख्य-अतिथि शैलेन्द्र चैहान द्वारा मशाल- प्रज्ज्वलन के साथ आरंभ हुई। इस सभा में हाड़ौती अंचल के विभिन्न श्रमिक कर्मचारी संगठनों एवं सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों के साथ शिवराम की माताजी श्रीमती कलावती और पत्नी श्रीमती सोमवती द्वारा उनके के चित्र पर माल्यार्पण कर उन्हें भावभीनी श्रृद्धांजलि अर्पित की। सभा में उन के पुत्र रवि कुमार, शशि कुमार और डॉ. पवन कुमार अपनी भूमिकाओं के साथ उपस्थित थे।

शैलेन्द्र चैहान ने अपने उद्बोधन में कहा कि हमें शिवराम की स्तुति करने के बजाय उनके विचारों, कार्य-पद्धति और श्रमजीवी जन-गण के प्रति समर्पण से प्रेरणा लेनी चाहिए। उन्होने कहा कि पुरानी जड़ परम्परा और नैतिकता के स्थान पर श्रमिकों, किसानों के जीवन के यथार्थ से जुड़ी सच्चाइयों का अध्ययन करते हुए क्रांतिकारी नैतिकता को आत्मसात करना चाहिए। क्रांतिकारी नैतिकता के बिना जन-गण के किसी भी संघर्ष को आगे बढ़ा सकना संभव नहीं है।  सफल प्रथम-सत्र की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साम्यवादी साथी विजय शंकर झा ने कहा कि वर्तमान व्यवस्था अपने पतन के कगार पर है, व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन से ही देश की शोषित, पीडि़त जनता के जीवन में खुशहाली संभव है। शिवराम इस परिवर्तन के लिए समर्पित थे। श्रृद्धांजलि-सत्र के पश्चात् शिवराम के प्रसिद्ध नाटक ‘‘जनता पागल हो गई है” की नुक्कड़ नाटक प्रस्तुति को सैंकड़ों दर्शकों ने देखा और सराहा। नाटक में रोहित पुरूषोत्तम (सरकार), आशीष मोदी (जनता), अजहर (पागल), पवन कुमार (पुलिस अधिकारी) और कपिल सिद्धार्थ (पूंजीपति) की भूमिकाओं को बेहतरीन रीति से अदा किया। लगा जैसे इसे शिवराम ने ही निर्देशित किया हो।
जनता पागल हो गई है की नाट्य प्रस्तुति

साँयकालीन सत्र में ‘‘साथी शिवराम के संकल्पों का भारत’’ विषय पर मुख्य वक्ता साहित्यकार महेन्द्र नेह ने कहा कि वर्तमान दौर में अमेरिका सहित पूरी पूंजीवादी दुनिया गहरे आर्थिक संकट में फँस गई है। हमारे देश के शासक घोटालों और भ्रष्टाचार में लिप्त होकर जन-विरोधी रास्ते पर चल पड़े हैं। आने वाले दिनों में समूची दुनिया में जन-आन्दोलन बढ़ेंगे तथा भ्रष्ट-सत्ताएँ ताश के पत्तों की तरह बिखरेंगी। सत्र के अध्यक्ष आर.पी. तिवारी ने कहा कि मेहनतकश जनता का जीवन निर्वाह शासकों ने मुश्किल बना दिया है, लेकिन बिना क्रान्तिकारी विचार और संगठन के परिवर्तन संभव नहीं। दोनों सत्रों में त्रिलोक सिंह, प्यारेलाल, टी.जी. विजय कुमार, शब्बीर अहमद, विजय सिंह पालीवाल, जाकिर भाई, विवेक चतुर्वेदी, पुरूषोत्तम ‘यकीन’ और राजेन्द्र कुमार ने अपने विचार व्यक्त किए। संचालन महेन्द्र पाण्डेय ने किया। दोनों सत्रों के दौरान प्रसिद्ध नाट्य अभिनेत्री ऋचा शर्मा ने शिवराम की कविताओं का पाठ किया, शायर शकूर अनवर एवं रवि कुमार ने शायरी एवं कविता पोस्टर प्रदर्शनी के माध्यम से अपनी बातें कही।

2 अक्टूबर को कोटा के प्रेस क्लब सभागार में ही ‘विकल्प’ अखिल भारतीय सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा द्वारा परिचर्चाओं का आयोजन किया। कार्यक्रम का आगाज हाड़ौती अंचल के वरिष्ठ गीतकार रघुराज सिंह हाड़ा, मदन मदिर, महेन्द्र नेह सहित मंचस्थ लेखकों ने मशाल प्रज्ज्वलित करके किया। कार्यक्रम के प्रारम्भ में ओम नागर और सी.एल. सांखला ने शिवराम के प्रति अपनी सार्थक कविताएँ प्रस्तुत की।

प्रथम गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार रघुराज सिंह हाड़ा ने ‘‘जन संस्कृति के युगान्तरकारी सर्जक शिवराम’’ विषय पर बोलते हुए बताया कि शिवराम का लेखन ठहराव से बदलाव की ओर ले जाने का लेखन है। उन्हों ने साहित्य के बन्धे-बन्धाए रास्तों को तोड़ कर आम जन के पक्ष में युगान्तरकारी भूमिका निभाई। मुख्य वक्ता मदन मदिर ने अपने ओजस्वी उद्बोधन में कहा कि सत्ता और मीडिया ने जनता के पक्ष की भाषा और शब्दों का अवमूल्यन कर दिया है। शिवराम ने अपने नाटकों और साहित्य में जन भाषा का प्रयोग करके अभिजनवादी संस्कॄति को चुनौती दी। वे सच्चे अर्थों में कालजयी रचनाकार थे। कथाकार लता शर्मा ने कहा कि शिवराम ने अपनी कला का विकास उस धूल-मिट्टी  और जमीन पर किया जिसे श्रमिक और किसान अपने पसीने से सींचते हैं। उनका लेखन उनकी दुरूह यात्रा का दस्तावेज है। डॉ. फारूक बख्शी ने फैज अहमद ‘फैज’ की गज़लों के माध्यम से शिवराम के लेखन की ऊँचाई को व्यक्त किया। डॉ. रामकॄष्ण आर्य ने शिवराम को एक निर्भीक एवं मानवतावादी रचनाकार बताया। टी.जी. विजय कुमार ने उन्हे संघर्षशील एवं विवेकवान लेखक की संज्ञा दी। प्रथम सत्र का संचालन महेन्द्र नेह ने किया।

दूसरे सत्र में  ‘‘अभावों से जूझते जन-गण एवं लेखकों- कलाकारों की भूमिका’’ विषय पर आयोजित परिचर्चा का आरंभ संचालक शकूर अनवर ने गालिब की शायरी के माध्यम से अपने समय की यथार्थ अक्कासी और आजादी के पक्ष में शिवराम की भूमिका को खोल कर किया। सत्र की अध्यक्षता करते हुए दिनेशराय द्विवेदी ने कहा कि शिवराम की भूमिका स्पष्ट थी, उन के संपूर्ण कर्म का लक्ष्य जन-गण की हर प्रकार के शोषण की मुक्ति था। उन्हों ने अपने नाट्यकर्म, लेखन, संगठन और शोषित पीडि़त जन के हर संघर्ष में उपस्थिति से सिद्ध किया कि साहित्य युग परिवर्तन में बड़ी भूमिका निभा सकता है। लेखकों और कलाकारों को जन-गण के पक्ष में रचनाकर्म करना ही नहीं है, प्रेमचंद की तरह उसे जनता तक पहुँचाने की भूमिका भी खुद ही निबाहनी होगी। मुख्य वक्ता श्रीमती डॉ. उषा झा ने अपने लिखित पर्चे में साहित्य की युग परिवर्तनकारी भूमिका को कबीर, निराला, मुक्तिबोध आदि कवियों के उद्धरणों से सिद्ध किया। अतुल चतुर्वेदी ने कहा कि बाजारवाद ने हमारे साहित्य एवं जन-संस्कृति को सबसे अधिक हानि पहुँचाई है। नारायण शर्मा ने कहा कि जब प्रकृति क्षण-क्षण बदलती है तो समाज को क्यों कर नहीं बदला जा सकता? रंगकर्मी संदीप राय ने अपना मत व्यक्त करते हुए कहा कि नाटक जनता के पक्ष में सर्वाधिक उपयोगी माध्यम है। प्रो. हितेश व्यास ने कहा कि शिवराम ने विचलित कर देने वाले नाटक लिखे और प्रतिपक्ष की उल्लेखनीय भूमिका निभाई। अरविन्द सोरल ने कहा कि समय की निहाई पर शिवराम के लेखन का उचित मूल्यांकन होगा।

चित्रकार व कवि रवि कुमार द्वारा शिवराम की कविताओं की पोस्टर-प्रदर्शनी को नगर के प्रबुद्ध श्रोताओं, लेखकों, कलाकारों ओर आमजन ने सराहा। ‘विकल्प’ की ओर से अखिलेश अंजुम ने सभी उपस्थित जनों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया।


० दिनेशराय द्विवेदी

शुक्रवार, 8 जून 2012

अर्जुन कवि के दोहे

अर्जुन कवि के दोहे

( अर्जुन कवि ने अपने जीवन में दस लाख दोहे लिखे। उनका नाम ‘वर्ल्ड गिनीज बुक’ में शामिल किया गया। कबीर की तरह वे भी किसी विद्यालय में नहीं पड़े, किन्तु अपने अनुभव से अनीश्वरवाद की समझ तक पहुंचे। )




अर्जुन अनपढ़ आदमी, पढ्यौ न काहू ज्ञान।
मैंने तो दुनिया पढ़ी, जन-मन लिखूँ निदान।।


रोटी तू छोटी नहीं, तो से बड़ौ न कोय।
राम नाम तोमें बिकै, छोड़ै सन्त न तोय।।


उत्पादक की साख है, जग पहचान हजार।
चन्दा पै ते दीखती, खड़ी चीन दीवार।।


राज मजब विद्या धनै, हैगौ इन अभिमान।
ठगै, काम सैतान के, होय न जन-कल्यान।।


पंच-तत्व को बाप है, सिरम तत्व पिरधान।
या के बिन वे ना फलैं, भूखों मरै जहान।।


नाम नासतिक धरि दियौ, जिनकूँ सच्चो ज्ञान।
पाखण्डै मानैं नहीं, कुदरत है भगवान।।


अर्जुन बुल बुल का करै, परे पिछारी काग।
ऊपर दुश्मन बाज है, नीचे बैरी नाग।।


मन्दिर मस्जिद आपके, हैं कैसे भगवान।
पण्डित मुल्ला नित लड़ें, अपने-अपने मान।।


आजादी आंधी चली, हवा दीन तक नाँय।
दिन सूरज की धूप में, राति राति में जाय।।


अर्जुन भारत राज में, उड़ै मंतरी मोर।
कंचन पंख समेटते, घोटाले घनघोर।।


कुदरत नैं धरती रची, लिखा न हिन्दुस्तान।
ना अमरीका, रूस है, ना ही पाकिस्तान।।


तू पौधा कब ते भई, अमरबेल विष बेल।
धरती तक देखी नहीं, अमृत पियै सकेल।।


उडि़ गये हंसा देश के, आजादी दिलवाय।
रह गये बगुला तीर पै, राज तिलक करवाय।।


लाखन साधुन में कहीं, मिलै न काबिल एक।
उत्पादक सब काबिलै, दे फल पेड़ हरेक।।

० अर्जुन कवि
- कवि कुटीर, चटीकना, जिला करौली  ( राज. )

शनिवार, 2 जून 2012

लोकतंत्र में शिक्षा के साथ षड़यंत्र

लोकतंत्र में शिक्षा के साथ षड़यंत्र
यादवचन्द्र

‘‘विद्यालय से सीखा हुआ सब कुछ भूल जाने के बाद भी जो बच जाता है, वही शिक्षा है।.... किसी मनुष्य का मूल्य इससे तय किया जाना चाहिये कि वह कितना देता है, न कि वह कितना पा सकने में सक्षम है।’’
‘‘हम विद्यालय को, नई पीढ़ी तक अधिक से अधिक ज्ञान को हस्तांतरित करने वाले मात्र साधन के रूप में देखते हैं - जो गलत है। ज्ञान मृत होता है, जब कि विद्यालय जीवितों की सेवा करता है। इसे अल्प-वयस्कों के बीच उन गुणों एवं क्षमताओं को विकसित करना चाहिए जो समाज के लिए मूल्यवान हैं।’’
‘‘क्या हम इस आदर्श को नीति-प्रवचनों द्वारा पाने का प्रयास करें, कदापि नहीं। शब्द खोखले हैं और रहेंगे। तथा किसी आदर्श की महज मुंहपुराई से सदा सत्यानाश का ही मार्ग प्रशस्त हुआ है। व्यक्तित्व का निर्माण श्रम और कार्य से होता है, न कि उससे जो सुना गया और कहा गया।’’

उपरोक्त विचार विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टाइन के हैं जो अमरीकी उच्च शिक्षा के एक समारोह में अलबनी ( न्यूयार्क ) में 15 अक्टूबर 1936 को व्यक्त कर रहे थे। इसी क्रम में विद्यालय की भूमिका पर उन्होंने कहा कि - ‘‘विद्यालय के काम की सबसे महत्वपूर्ण प्रेरणा है काम से मिलने वाला आनन्द, उसके फल की प्राप्ति का आनन्द तथा समाज के लिए इस फल के महत्व का ज्ञान। इन मनोभावों को युवावर्ग के बीच जाग्रत करना और उन्हें मजबूत बनाना ही विद्यालय का सब से महत्वपूर्ण कार्य है।’’

‘‘विद्यालय का लक्ष्य सदा ही यह होना चाहिए कि यहां से नवजवान समन्वित व्यक्तित्व से सम्पन्न होकर निकलें, नाकि विशेषज्ञ के रूप में। स्वतंत्र चिंतन एवं निर्णय की क्षमता के विकास को सर्वोपरि लक्ष्य मानना चाहिए, न कि विशेष ज्ञान की प्राप्ति को।’’

आज, कुकुरमुत्ते की तरह भारत की छाती पर उगी प्राइवेट स्कूलों की तादाद कौन सी तस्वीर, कौन सा आदर्श प्रस्तुत कर रही है, यह इस व्यवसाय में पूंजी लगाने वाले ही बेहतर जानते हैं। हां, यह सच है कि शिक्षा सम्बन्धी नीतियों का निर्धारण सदा शासक वर्ग अपनी जरूरतों और वर्ग हितों को ध्यान में रखकर ही करता आया है। मानव सभ्यता के हजारों वर्षों के वर्ग विभाजित समाज के इतिहास में शिक्षा प्रत्येक युग में शासक वर्ग द्वारा संचालि आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक मान्यताओं एवं अवधारणाओं का न केवल पृष्ठ पोषण करती है बल्कि उसकी यथास्थिति को बरकरार रखने के लिए सैद्धांतिक एवं वैचारिक आधार भी प्रदान करती है। वर्ग विभाजित समाज में वर्गीय संरचना से जुड़े होने के कारण शिक्षा स्वतंत्र, निष्पक्ष एवं तटस्थ भूमिका का निर्वाह कर ही नहीं सकती। यह वर्ग विहीन समाज में ही सम्भव है।

भारत में भी अपना उपनिवेश कायम रखने और नव स्थापित रेलवे, डाक, तार आदि के रख रखाव और चंद उद्योगों के संचालन हेतु अंग्रेजों को कुछ प्रशिक्षित अभियंताओं, शिक्षकों, डॉक्टरों, प्रशासकों से लेकर किरानियों और चपरासियों की जरूरत पड़ी। अंग्रेजों ने अपने हित का ख्याल रखते हुए ब्रिटिश पद्धति से पाठ्यक्रम लगाए। मैकाले ने गुलामों के लिए एक मुकम्मिल शिक्षा की रूप रचना तैयार की जो आजादी के बाद भी हमारी शिक्षा के रूप-विधा-नीति-निर्देशक आदि का आधार बना हुआ है।

अंग्रेजों की इस शिक्षा की बखिया उधेड़ते हुए सितम्बर 1933 में मुंशी प्रेमचन्द ने लिखा - ‘‘समाज पर अब तक व्यक्तिवाद की प्रमुखता रही है और हमारी शिक्षा-प्रणाली भी व्यक्ति का ही समर्थन करती है। बचपन से ही व्यक्ति का विकास होने लगता है और यूनिवर्सिटियों में जाकर पूरा हो जाता है। उस सांचे में ढलकर युवक आत्मसेवी, घोर स्वार्थी, मित्रता में भी स्वार्थ की रक्षा करने वाला, पक्का उपयोगितवादी और घमंडी होकर रह जाता है।’’

आगे के शब्दों में वे पूंजीवादी-साम्राज्यवादी शिक्षा के अमानवीय, असामाजिक, निर्लज्ज, फरेबी, मक्कार पहलू का खुलासा चन्द शब्दों में कर रहे हैं- ‘‘हमारी शिक्षा प्रणाली हमारी चेतना को नहीं जगाती, उसका उद्देश्य अपने फायदे के लिए समाज से काम निकालना है। समाज केवल इसलिए है कि वह उसे ( साम्राजियों को ) बढ़ने और संचय करने का अवसर दे। वही मनुष्य सफल समझा जाता है जो समाज को खूब अच्छी तरह एक्सप्लाइट कर सके।’’

डच, फ्रेंच, अंग्रेज, पोर्तुगीज, अमेरिकन या जो भी विदेशी भारत में आए या आ रहे हैं, सब का एकमात्र उद्देश्य रहा है - एक्सप्लाइटेशन-शोषण। सारे थैलीशाहों की शिक्षा आम जनता को बुद्धू, गूंगा, पिछड़ा और परले दर्जे का स्वार्थी बनाती है। 1911 में गोपाल कॄष्ण गोखले ने प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य करने का बिल पेश किया। एसेम्बली ने उसे खारिज कर दिया। इसका कारण बंबई प्रांत के गवर्नर द्वारा वाइसराय के भेजे गए पत्र में साफ-साफ है - ‘‘यदि सभी किसान पढ़ जाएंगे तो असंतोष को उत्तेजना में बदलने की शक्ति बहुत बढ़ जाएगी।’’

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के विरूद्ध अंग्रेजों ने शिक्षण संस्थाओं का भरपूर उपयोग किया। इस दिशा में विद्यार्थियों पर शिक्षक सदा पैनी नजर रखते थे। इस काम के लिए विद्यालयों तथा मन्दिरों-मस्जिदों का उपयोग निर्लज्जतापूर्वक किया जाता था। संस्कृत और उर्दू-फारसी के शिक्षकों को ‘मास्टर साहब’ या ‘सर’ अथवा ‘सब्जेक्ट टीचर’ के संबोधन से नहीं, बल्कि पंडित जी और मौलवी साहब कहकर पुकारा जाता था। ‘रिलीजियस पीरियड’ प्रायः उन्हीं के नाम पर होते थे। पंडितजी और मौलवी साहब ( अन्य शिक्षक भी रहते थे ) हिन्दू और मुसलमान विद्यार्थियों को साथ लेकर मंदिर-मस्जिद में मार्च करते थे। वहां विद्यार्थी, अंग्रेज राजा और अंग्रेज शासन के दीर्घायु होने की कामना करते थे। ईश्वर-अल्लाह की इबादत होती थी। ट्यूनेसिया ( अफ्रीका ) को द्वितीय विश्वयुद्ध के दौर में कुचल डालने या रक्षा के नाम पर यह खूब होता था। जैसे आज भी ईराक की आजादी की लूट की खुशी में भारत से फौज मार्च कराने की बात अमेरिकन आका कर रहे हैं।

एस्काउट के रूप में छात्रों की तीन उंगलियों से यूनियन जैक ( इंगलिश झंडा ) को सलामी देते हुए घोषणा करनी पड़ती थी कि - मैं ईश्वर, देश और ;अंग्रेजद्ध नरेश के प्रति अपना कर्तव्य पालन करूंगा। 1921 के बाद कुछ शिक्षक खादी का कपड़ा भी पहनने लगे। गांधीवादी आदर्श के प्रति शासकों में उदारता आई। किन्तु हॉस्टल या किसी विद्यार्थी के पास से क्रांतिकारी पर्चा निकल आया तो कोहराम मच जाता था। विद्यालय अधिकारी तुरंत पुलिस को खबर करते। ‘सर्च’ शुरू हो जाती। प्रिंसिपल अगर थोड़ा रहमदिल हुआ तो उस लड़के का नाम काट कर भगा देता और उसके ‘कैरेक्टर’ के सम्मुख अंकित कर देता - ‘बैड’।

क्रांतिकारियों से सम्बन्धित पुस्तक पढ़ने के लिए छात्रों के पास शेर का कलेजा होना चाहिए था। हम एक्सील हाई स्कूल के तीन छात्र रात में एक बजे के बाद किसी गुप्त मकान में मन्मथनाथ गुप्त की लिखी किताब पढ़ने के लिए इकट्ठे होते और चार बजते-बजते वहां से फरार हो जाते। इंगलिश लेखक रजनी पामदत्त की भारतीय अर्थशास्त्र पर लिखी किताब ‘आज का भारत’ या सुन्दर लाल की ‘भारत में अंग्रेजी राज’ पर वैसी ही पाबंदी थी। जबकि ‘नेहरूज लेटर्स टू हिज डॉटर’ कोर्स में थी। इसका रहस्य तब स्पष्ट हुआ जब आजादी के बाद मैंने छठे वर्ग के साहित्य में नेहरू जी लिखित ‘चांगकाई शेक’ पढ़ा और तत्कालीन शिक्षा पर 1933 में प्रेमचन्द ने लिखा - ‘‘संसार में इस समय जिस शिक्षा प्रणाली का व्यवहार हो रहा है, वह मनुष्य में ईर्ष्या, घृणा, स्वार्थ, अनुदारता और कायरता आदि दुर्गुणों को पुष्ट करती है और यह क्रिया शैशव अवस्था से ही शुरू जो जाती है। सम्पन्न माता-पिता अपने बालक को जरूरत से ज्यादा लाड़-प्यार करके और बड़े होने पर उसकी दूसरे लड़कों से अच्छी दशा में रखने की चेष्टा करके, उसे इतना निकम्मा बना देते हैं, और उसकी बुनियाद को इतना परिवर्तित कर देते हैं कि वह समाज का खून चूसने के सिवा और किसी काम का रह नहीं जाता।’’

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौर में गोखले, राममोहन राय, महात्मा गांधी, जाकिर हुसैन, काका कालेलकर आदि ने शिक्षा की दिशा में आदर्शवादी ढंग से कुछ सोचा अवश्य लेकिन सोच पूर्णतः एकांकी, आदर्शवादी और अवैज्ञानिक थी। कांग्रेस के अन्दर भी इस पर कभी जमकर बहस नहीं हुई। मदन मोहन मालवीय, जवाहर लाल नेहरू, सर सैयद आदि अंग्रेजी प्रणाली को ही राष्ट्रीय रंग-रोगन देकर कायम रखने की वकालत करते थे। तीसरा भाग पुरुषोत्तम दास टंडन, लियाकत अली, जिन्ना, सम्पूर्णानन्द आदि जैसे उदार सम्प्रदायवादियों का था। वैसे वे विद्या भारती, सरस्वती शिशु मंदिर, संस्कार भारती आदि की तरह तो नहीं थे जो बच्चों से परीक्षा में प्रश्न पूछते हों कि - ‘बाबर ने कब राम मंदिर को तोड़ा और बाबरी मस्जिद का निर्माण किया? या राम जन्मभूमि किस तरह से भगवान राम की जन्म भूमि है?’ आदि आदि। वे गुजरात के शिक्षा परिषद के वर्ग दस की पाठ्य-पुस्तक की तरह खुले आम हिटलर और उसके दर्शन-नाजीवाद की प्रशंसा नहीं छाप सकते थे। ( दि स्टेटसमैन, 1 अप्रैल, 2000 ) क्योंकि परिस्थिति उनके अनुकूल आज भी नहीं है। फिर भी, तत्ववाद और धार्मिक प्रतीति को भी वे राष्ट्रीयता का अंग मानते थे। व्यक्तिवाद उन पर बुरी तरह हावी था। वस्तुतः कांग्रेस सभी तरह के विचारों की वास्तविक ‘कांग्रेस’ थी जिसके पास देश के लिए न कोई राजनीति थी और न अर्थनीति, शिक्षा नीति, विदेश नीति या कोई भी नीति। ऐसी हालत में 1947 के बाद सत्ता से किसी नीति की अपेक्षा रखना निरर्थक है। इनकी नीति-नैतिकता सिर्फ एक ही है - ‘महाजनों जे न गता से पन्था’ अर्थात् जिस रास्ते महाजन जाएंगे, हम भी उसी के पीछे लग जाएंगे।

56 वर्षों से हम प्रजातंत्र का ढोल पीट कर बच्चों को पूंजीवाद की शिक्षा दे रहे हैं। यह सर्वविदित है कि सभी स्कूल-कॉलेजों में पूंजीवादी अर्थशास्त्र पढ़ाया जाता है क्योंकि प्रजातंत्री अर्थशास्त्र होता ही नहीं है। पूंजीवादी और समाजवादी अर्थशास्त्र से अलग कोई अर्थशास्त्र नहीं होता। अर्थशास्त्र के अनुरूप ही देश की अर्थव्यवस्था - शासन, न्याय, शिक्षा, चुनाव आदि सब कुछ होता है। थैलीशाहों का पूंजीवाद बुरी तरह बदनाम हो चुका है। इसलिए अपने लूटतंत्र को वे प्रजातंत्र, जनतंत्र या लोकतंत्र के नाम पर कायम करते हैं और विश्व की 90% मेहनतकश जनता की छाती पर मूंग दलते हैं। भूमंडलीकरण अर्थात् मुट्ठीभर कुबेर पुत्रों द्वारा पूरे भूमंडल की सम्पूर्ण सामाजिक सम्पत्ति के निजीकरण की कार्य योजना ही आज पूंजीवाद का विकसित रूप है।

यह कार्य-योजना सार्वजनिक स्तर पर सर्वप्रथम शिक्षा जगत में भारतीय जनतंत्र के भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गाॅंधी द्वारा वर्ष 1986 की ‘नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ ;छण्च्ण्म्ण्द्ध के साथ प्रस्तावित की गई। आगे चलकर नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्री काल में इसे नई आर्थिक नीति के विकास के साथ जोड़ कर सभी सरकारों ने इसे संगठित करने की मुहिम तेज कर दी, चाहे वह केरल हो या बंगाल। क्या हुआ भारतीय लोकतांत्रित संविधान की घोषणा का? - ‘‘भारतीय संविधान-निर्माण के दस वर्ष के भीतर सब को साक्षर कर दिया जायेगा।’’ क्या हुआ ‘यूनस्को’ के झूठे वायदों का? - ‘‘2000 तक सब को शिक्षित कर दिया जायेगा।’’

तो इसके जवाब में 1986 में हार्वर्ड विश्वविद्यालय ( अमेरिका ) में राजीव गांधी का भाषण सुन लीजिए - ‘‘मैं नहीं समझता कि साक्षरता लोकतंत्र की कुंजी है...हमने देखा है...और मैं सिर्फ भारत की ही बात नहीं कर रहा हूं...कि कभी-कभी साक्षरता दृष्टि को संकुचित बना देती है, उसे विस्तृत नहीं बनाती।’’ लगे हाथ कांग्रेस के तथाकथित प्रमुख विरोधी और भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से भी मिल लीजिए - ‘‘सरकार के लिए सभी भारतीयों को शिक्षित करना सम्भव नहीं। अतः गैर सरकारी संस्थान आगे आए और देश को पूर्ण शिक्षित करें।’’ विद्याभारती द्वारा आयोजित खेल प्रतियोगिता का यह उद्घाटन भाषण वाजपेयी जी ने 12 दिसम्बर 1999 को दिया था। ( दि ऑर्गनाइजर, 9.1.2000 )

अवाम के विरूद्ध मुट्ठीभर सुविधाभोगी सम्पन्न वर्ग के इस दृष्टि-साम्य का कारण बतलाते हुए राममोहन राय ने एकबार कहा था - ‘‘निरंकुश सरकारों द्वारा लगातार जो तर्क दिया जाता है कि ज्ञान का प्रचार-प्रसार कानून की संस्थाओं के अस्तित्व के लिए खतरनाक है, वह इसलिए कि लोग जागरूक हो गये तो समझ जाएंगे कि बहुसंख्यक लोग संगठित प्रयास के द्वारा अपनी गर्दन पर लदे चंद लोगों के जुए को बहुत आसानी से झटक दे सकते हैं और इस प्रकार सत्ता के बन्धनों से अपने को मुक्त कर सकते हैं।’’

अतः अपने को डेमोक्रेटिक कहने वाली सभी पूंजीवादी सरकारों ने शिक्षा के दायित्व से मुंह मोड़ लिया है और नर्सरी से लेकर उच्च शिक्षा को प्राइवेट मैनेजमेन्ट के हवाले कर दिया है। जो कॉनवेन्ट स्कूल यूरोप में लावारिस बच्चों के पठन-पाठन के लिए फ्री स्कूल के नाम से खोले गए थे, आज भारत में सोने के अंडे देने वाली मुर्गी बन कर चल रहे हैं। विश्व बैंक का आग्रह है कि इस देश में निजी पूंजी निवेश को प्रोत्साहन दिया जाये। निजी पूंजी निवेश का प्रथम लक्ष्य है मुनाफा कमाना। आज शिक्षा भी मुनाफा देने वाला एक अच्छा व्यवसाय बन गया है। वह दिन दूर नहीं जब कारगिल, रिलायंस, सहारा सरीखी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां 10 करोड़ रूपये किसी सरकारी बैंक में जमा कर यहां विश्वविद्यालय खोलेंगी और उंचे दामों पर डिग्रियां बेचेंगी। शिक्षा मुट्ठीभर लोगों के हाथों में सिमट कर रह जाएगी और सामान्य जन शिक्षितों की परिधि से बाहर चले जाएंगे।

आज देश के शासक वर्ग ने अमेरिकी साम्राज्यवाद की नियंत्रित संस्था विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के निर्देशन में सम्पूर्ण देश को नव उपनिवेश के रूप में परिवर्तित करने में अपनी सारी शक्ति लगा दी है। पूंजीपतियों के लिए व्यापार के अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा शिक्षा को सर्वाधिक लाभ देने वाला व्यवसाय बना दिया है।

ऐसी व्यावसायिक संस्थाएं सभी छोटे-बड़े शहरों में न्यूनतम 800 से 5000 तक शिक्षण शुल्क और एक मोटी रकम डोनेशन, कैपिटेशन, कॉशनमनी, विकास शुल्क, मिसलेनियस आदि के नाम पर अंग्रेजी मीडिया का बोर्ड लटका कर ऐंठती हैं। आज विद्यार्थी, शिक्षक और जनता को लूटना ही शिक्षा है। आजादी के बाद ‘कैरेक्टर’ की जगह ‘कैरियर’ है। तस्करी की दुनिया में माल टपानेवाले को कैरियर कहते हैं। अपहरण उद्योग में भी अब यह शब्द चल निकला है। शिक्षा-जगत में भी यह शब्द इसी अर्थ में चलाया जा रहा है। आपका कैरियर खड़ा करने के लिए दाखिला है, घूस है, परीक्षा में चोरी, सर्टीफिकेट की बिव्रळी, कोचिंग की बाढ़, ठेका पर डिवीजन है। एभैल्यूएसन में व्याप्त आपाद मस्तक भ्रष्टाचार है, शिक्षा में एकरूपता की पूर्णतः समाप्ति है, 80% जनता को शिक्षा कम्पाउन्ड में घुसने की मनाही है। काठमांडो या मनिला का गांजा, अफीक, स्मैक, ब्राउन सुगर ऐसे ही नहीं दिल्ली पहुंच जाता है।

जिस देश के 40% लोग गरीबी की सीमा रेखा से नीचे हों, 50% महिलाएं धार्मिक तथा सामंती-सामाजिक संरचना के कारण शिक्षा की मुख्य धारा से कटी हों, शिक्षा उद्योग में प्रतियोगी देशी-विदेशी धन्नासेठ कूद चुके हों, सरकार उनके टेबुल पर कप-प्लेट सजाने और ‘टिप’ कमाने में पेरशान हों, वहां देश की 85% जनता, देश पर जान लुटाने वाले देश भक्त विद्यार्थी, नौजवान, मजदूर-किसान, दार्शनिक और बुद्धिजीवी क्या सोच रहे हैं?

अब प्रश्न केवल शिक्षा का नहीं रहा। देश, देश की जनता, जनता की आजादी, भूख, बदहाली - सारे सवालों से शिक्षा अभिन्न रूप से जुड़ गई है। क्या आज से 56-57 वर्ष पूर्व अंग्रेजी साम्राज्यवाद में हमने अपने देश की दर्दनाक तस्वीर नहीं देखी थी? आज अमेरीकी साम्राज्यवाद के जनद्रोही-राष्ट्रद्रोही रूप को छुपाया क्यों जा रहा है? क्या अमरीकी पैसों पर पलते भांटों के कहने पर हम अपनी पिछली दो सौ वर्षों का इतिहास भुला दें? इराक, अफगानिस्तान, फिलिस्तीन, नेपाल, लाओस, कंबोडिया, चीन, वियतनाम, जापान, कोरिया, भारत, पाकिस्तान, बांगलादेश आदि देशों के पिछले कोई दो सौ वर्षों की लूट, धोखा, मक्कारी और कमीनापनी का इतिहास यदि डच, पोर्तुगीज, फ्रेच, अंग्रेज और अमेरिकन के पास है तो हम एशियाई देशों की सीधी-सादी जांबाज जनता के पास भी सुरक्षित है। किन्तु, इस महादेश की जनता की जैसी दुर्गति अमरीकी साम्राज्यवाद ने की, वैसी किसी ने नहीं की थी।

भारत को कुछ जयचन्दों ने अमरीकी साम्राज्यवादियों के हाथ गिरवी रख दिया। अरबों-खरबों कमाए। क्या हुआ हवालों घोटालों को? देश खत्म हो चुका है। हम शिक्षा की रक्षा का प्रस्ताव, मांग, सुझाव आखिर किसके सम्मुख रखें? हम डेलीगेसन, प्रदर्शन लेकर आखिर किसके दरवाजे जाएं? प्रश्न से जी चुराना अपराध है। विवेकानन्द के शब्दों में -‘‘मैं, उसे गद्दार कहूंगा जो शिक्षित होने के बाद लाखों- करोड़ों, शोषितों के खून पर जीवन व्यतीत करता है और उनके बारे में कभी एक पल भी नहीं सोचता है।’’

जनता सर्वोच्च है। हम एक निर्णायक संघर्ष फिलहाल खड़ा करें - सभी संघर्षरत दलों, तबकों और व्यक्तियों से मिल कर नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति ( NPE 1986 ) को अविलम्ब पूर्णतः समाप्त करने का आंदोलन प्रारम्भ किया जाय। शिक्षा- प्रणाली में पूर्ण एकरूपता शिक्षा मिले-इसकी गारंटी हो। चैदह वर्ष तक के बच्चों की निःशुल्क अनिवार्य शिक्षा शीघ्र पूरी की जाये। सम्पूर्ण खर्च सरकार उठाए। निजीकृत और राजकीयकृत का फर्क मिटाया जाये। पूरे कार्यदिन पढ़ाई हो। रिक्त पदों की पूर्ति हो और बिना किसी अगर-मगर के शिक्षकों का वेतन नियमित हो। शिक्षेतर कार्य जैसे - चुनाव जनगणना, पोलियो मार्च, पर्यावरण का खेल-तमाशा, नेताओं के जन्मोत्सव का जुलूस-प्रदर्शन आदि शिक्षेतर कर्मचारियों से कराए जायें। शिक्षिकाओं को राष्ट्रीय समुन्नत संस्कृति की जननी बनाई जाये। गुरू-शिष्य और अभिभावकों के निकायों द्वारा शिक्षा की लोकतांत्रिक व्यवस्था खड़ी की जाये। शिक्षालयों को जातीय एवं साम्प्रदायिक विद्वेष से हर हालत में मुक्त रखा जाये। आदर्श, आनन्ददायक, मनोरंजन युक्त, मानवीय और कलात्मक शिक्षा ही शिक्षा का उद्देश्य है।

क्या शिक्षक, शौचालय, पुस्तकालय, ब्लैकबोर्ड, उपस्कर, पानी और भवन विहीन या भूतों के खंडहरों द्वारा ऐसी शिक्षा सम्भव है? बिहार के 90% प्राथमिक विद्यालय इसी ढंग के हैं। इस स्थिति में छात्र-शिक्षक अभिभावक और सांस्कृतिक-साहित्यिक-राजनैतिक दल क्या करें? पर्चाबाजी, भाषण, मांग, धरना, प्रदर्शन.... जो भी आज सम्भव हो, हम शुरू कर दें वर्ना नाव में पानी भर चुका है, सर्वनाश से हमें कोई नहीं बचा सकता।

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संदर्भ: 1. शिक्षा सरोकार ( पत्रिका ), मुजफ्फरपुर ( बिहार ) 2. अभिव्यक्ति ( पत्रिका ), कोटा ( राजस्थान ) 3. सम्प्रदान ( पत्रिका ), कांकीनारा ( प. बंगाल )
( बिहार पब्लिक स्कूल, सीवान की पत्रिका ‘जिज्ञासा’ से )