सोमवार, 25 जून 2012

बिना कलम के खुद की जिनगी लिखती है बाबू।

शान्ति सुमन के दो गीत





इसी शहर में

इसी शहर में ललमुनिया भी
रहती है बाबू
आग बचाने खातिर कोयला
चुनती है बाबू

पेट नहीं भर सका
रोज के रोज दिहाड़ी से
मन करे चढ़कर गिर
जाये उंची पहाड़ी से

लोग कहेंगे क्या यह भी तो
गुनती है बाबू

चकाचौंध बिजलियों
की जब बढ़ती है रातों में
खाली देह जला--
करती है मन की बातों में

रोज तमाशा देख आंख से
सुनती है बाबू

तीन अठन्नी लेकर
भागी उसकी भाभी घर से
पहली बार लगा कि
टूट जाएगी वह जड़ से

बिना कलम के खुद की जिनगी
लिखती है बाबू।

खुशी के आँसू

उनके घरों की तस्वीरें हॅंसती हैं
अपने घर की दीवारें रोती हैं

जोड़ रही उंगली पर आधे
अपने बीते दिन को
कितने कब भूखे सोये बच्चे
लगे गड़ांसे मन को

बिना जले वह धुआं-धुआं होती है

दिनों से दीखा कुछ नहीं कभी
खुशी के आंसू जैसा
दरवाजे तक बहुत उड़ा हुआ
है कागज सांसों का

बदली हुई हवा नारे बोती है

नीदों भरे सपनों से उसको
हासिल नहीं हुआ जो
संगीत को उम्मीद के सुनते
जिला-जिला रखती जो

कठिन हौसले ही मन के मोती हैं।

० शांति सुमन
- 36, ऒफीसर्स फ्लैट्स, जुबली रोड, नार्दर्न टाउन, जमशेदपुर

3 टिप्‍पणियां:

  1. बिना कलम के खुद की जिनगी
    लिखती है बाबू।

    उम्दा , बहुत उम्दा लेखन |

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  2. दोनों ही बहुत बेहतरीन और उत्कृष्ट हैं । यथार्थ को उकेरती हुई सी

    इसी शहर में ललमुनिया भी
    रहती है बाबू
    आग बचाने खातिर कोयला
    चुनती है बाबू..

    सच इसी शहर में क्या कुछ नहीं हो जाता ..। प्रभावित करने वाली रचनाएं

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  3. नीदों भरे सपनों से उसको
    हासिल नहीं हुआ जो
    संगीत को उम्मीद के सुनते
    जिला-जिला रखती जो

    कठिन हौसले ही मन के मोती हैं।
    प्रेरित सा करती प[ाँक्तियां। सुन्दर रचनायें। आभार।

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