वीरेन्द्र आस्तिक के दो गीत
बहरों के इस सभागार में
कहने की आजादी
इसका सीधा अर्थ यही है -
शब्दों की बरबादी
आओ! बोलो वहाँ, जहाँ
शब्दों को प्राण मिले
पोथी को नव अर्थों में
पढ़ने की आँख मिले
बोलो आम-जनों की भाषा
ख़ास न कोई बाकी
तोड़ो वह भाषा, जिससे
लोक मूक हो जाते
उठते हुए मस्तकों को
कूटाशीष झुकाते
और जगाओ वर्तमान को
हां डूबेगा नाजी
जंगल राज
जंगल का राजा
हॅंसता है
भोली प्रजा काँपती है
उसके रंग बदलते
शासन में
गिरगिट जी सकते
गिलिसरीन के आँसू
घडि़यालों को
पिघला सकते
जब-जब हिलती
उसकी कुर्सी
खून-चूस कर थमती है
हड्डी के स्वादी
श्रृगाल से
चीतों को मरवाते
भरी मांद को
झोंक आग में
राजा धर्म निभाते
अट्टहास गिद्धों-कौवों का
जंगल पीर
सिसकती है
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