गुरुशरण सिंह |
नाटककार गुरशरण सिंह
भगतसिंह के क्रांतिकारी विचारों तथा संघर्ष की परंपरा को अपने नाटकों के ज़रिए आगे बढ़ाने वाले पंजाब के ही प्रतिबद्ध सांस्कृतिक योद्धा गुरुशरण सिंह ने अपने उसूलों के साथ कभी समझौता नहीं किया। गुरुशरण सिंह होने का मतलब यही है और कला को हथियार में बदल देने तथा सोद्देश्य संस्कृति कर्म का इससे बेहतरीन उदाहरण नहीं हो सकता।
वे पंजाब में इप्टा के संस्थापकों में थे और नाट्य आंदोलन को संगठित व संस्थागत रूप देने में उन्होंने अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने सरकारी दमन और आतंकवादियों की धमकियों की कभी परवाह नहीं की और अपने नाट्यकर्म के ज़रिए सत्ता के ख़िलाफ़ समझौताविहीन संघर्ष चलाते रहे। वे एक ऐसे जन सांस्कृतिक आंदोलन के पक्षधर थे जो अपनी रचनात्मक ऊर्जा संघर्षशील जनता से ग्रहण करता है और इस आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए जनवादी व क्रान्तिकारी संस्कृतिकर्मियों के संगठन की जरूरत को वे शिद्दत के साथ महसूस करते थे। गुरुशरण सिंह क्रान्तिकारी राजनीतिक आंदोलनों से भी घनिष्ठ रूप से जुड़े थे।
जंगीराम की हवेली’, ‘हवाई गोले’, ‘हर एक को जीने का हक चाहिए’, ‘इक्कीसवीं सदी’, ‘तमाशा’, ‘गड्ढ़ा’, ‘इंकलाब जिंदाबाद’ आदि उन के कई नाटक काफ़ी लोकप्रिय और चर्चित रहे हैं तथा खूब मंचित किए गए हैं।
यहाँ हम उन का नाटक "एक ही मिट्टी के पूत" प्रस्तुत कर रहे हैं ...
एक ही मिट्टी के पूत
- गुरशरण सिंह
(पात्र: मिलखी - एक बेज़मीना खेत मजदूर; जीतो - उसकी पत्नी; कैला - एक और बेज़मीना खेत मजदूर; लखासिंह - एक छोटा किसान; सरपंच - गांव का सरपंच; सरदार - एक जमींदार)
दृश्य: एक
(नाटक शुरू होने पर मिलखी मांड से अकड़ी हुई सफेद पगड़ी बांध रहा है। कुछ गुनगुना रहा है। जीतो, उसकी पत्नी आती है।)
जीतो : यह जो तुम सफेद कपड़े पहनकर सरदार के घर रहते हो, मुझे तुम्हारे लक्षण अच्छे नहीं लगते।
मिलखी : तुम्हें तो हमारा कोई भी काम अच्छा नहीं लगता। भली लोक, तुम्हें सरदार की बातों का क्या पता?
जीतो : मुझे सभी बातों का पता है। दो बूंद तुम्हें पीने दे दी, अफीम
गोला गले से उतारने को दे दिया और तुम दुम उठाए घूमते हो, और मेरी सुनो,
हमें बाड़े में रहना है, अपने भाइयों से अलग नहीं हो सकते।
मिलखी : भाईयों से तुम्हें जुएं लेनी हैं। तुम्हें मेरी स्कीमों का
पता नहीं। एक बार सिरे चढ़ गईं तो तुम्हें कच्चे बाड़े में नहीं रहना
पड़ेगा। हमारे भी पक्का घर बन जाएगा। सरदार तो अब भी कहता है कि बेशक
शहरवाली कोठी की पिछली नैक्सी में चला जाउं।
जीतो : यह नैक्सी क्या होती है?
मिलखी : बड़ी कोठी के पीछे छोटी कोठी।
जीतो : वहां जाकर क्या करोगे?
मिलखी : जो यहां करता हूं - सरदार की सेवा।
जीतो : सेवा नहीं, टाउटगिरी करते हो।
मिलखी : बड़ों की सेवा यही होती है। वे खुद थोड़ा ही बात करते हैं। वे तो सिर्फ सोचते हैं, करना तो हमें ही होता है।
जीतो : अब सरदार ने क्या सोचा है? और तुम्हें क्या करना है? चुनाव तो अभी दूर हैं।
मिलखी : अब चुनावों से भी बड़ा काम है। सरदार ने कम्बाइन खरीदी है।
विचार था कि सीजन अच्छा लगेगा और मूल निकल आएगा। जाट कहते हैं कि वे
कम्बाइन से कटाई नहीं करवाएंगे, इससे भूसी नहीं पल्ले पड़ती।
जीतो : यह तो ठीक है।
मिलखी : कटाई अगर कम्बाइन से नहीं होगी तो फिर मजबूरन जाटों के
बाड़े वालों की जरूरत पड़ेगी और सरदार नहीं चाहता कि बाड़ेवाले यह काम
करें।
जीतो : वे क्या चाहते हैं कि यह काम भैये करें?
मिलखी : भैये कहां आएंगे, वे तो डर के मारे इधर मुंह नहीं करते।
जीतो : हां, पिछले साल उग्रवादियों के हाथों दो आदमी मारे गये थे।
मिलखी : कहां? उन्हें तो सरदार ने ही मरवाया था, नाम उग्रवादियों का लग गया।
जीतो : तुम्हें कैसे पता?
मिलखी : मुझे ही तो पता है। मैंने ही तो जग्गा लोगों को सरदार की ओर
से पैसे दिए थे। वही तो बड़े उग्रवादी बने फिरते हैं। यह तुम्हारे कान के
बाले, भली लोक, उसी में से निकले थे। बड़ी रकमें जब इधर से उधर हों तो
बिचलियों के लिए बाले, झुमके निकालने मुश्किल नहीं होते।
जीतो : ( कान के बाले उतारते हुए ) तो ये बाले पाप की कमाई के हैं?
मिलखी : पाप की नहीं, हमारे दिमाग की कमाई है, और हमारे कौन-से हल
चल रहे हैं। भैयोंवाला रास्ता तो सरदार ने इसलिए साफ किया कि उसने धान की
फसल के समय देख लिया था कि भैये रह गए तो कम्बाइन का व्यापार सिरे नहीं
चढ़ने वाला।
जीतो : अच्छा, आगे बात करो।
मिलखी :
अब भैये आएंगे नहीं। इसलिए मजबूर होकर जाटों को बाड़ेवालों को बुलाना
पड़ेगा और बाड़ेवाले को मैंने मुट्ठी में कर लिया है, पैंतालीस रुपए
दिहाड़ी से कम वे लेंगे नहीं, घीले लोगों को मैंने सरदार से इतने दिलवा भी
दिए हैं। बस अब खेल यह है कि जाट पैंतीस से पैंतालीस देंगे नहीं।
बाड़ेवाले पैंतालीस से कम पर काम करेंगे नहीं, खेतों में पकी हुई फसल खड़ी
रहे, यह जाटों को बरदाश्त नहीं होगा, कर्ज उनके सिर पर खड़े हैं। जाटों और
बाड़ेवालों के झगड़े में आखिर जाटों को सरदार की मिन्नत-खुशामद करनी
पड़ेगी ताकि कम्बाइन से कटाई हो सके और सरदार मुंहमांगी रकम लेगा। 225 से
लेकर 250 रुपए किल्ले तक।
जीतो : इस तरह तो बाड़ेवाले बगैर काम के मारे जाएंगे।
मिलखी : मारे जाएं। उन्होंने कौन मेरे कहने पर सरदार को वोट दी थी?
जीतो : और तुम्हें क्या मिलेगा।
मिलखी : सरदार ने कहा कि वह मुझे खुश कर देगा। यह लो, पचास रुपए
सॅंभालो, सूट के लिए कपड़ा ले आना। हमने कोई ठेका नहीं लिया कि सरदारनी की
उतरन पहनें।
जीतो : परंतु पचास रुपए का सूट थोड़े ही बनता है।
मिलखी : ले, पचास और पकड़।
जीतो : यदि काम न मिला तो बाड़े में भूख ही भूख होगी।
मिलखी : इससे पहले मेरे सुसर कौन-सा रोज खीर खाते हैं। भली लोक, आज
का युग अब मौकापरस्ती का है। जो मौके का लाभ ले गया सो ले गया, जो रह गया,
बस रह गया।
जीतो : तुम तो दलाली की कमाई खाते हो।
मिलखी : सभी बड़े-बड़े दलाली करते हैं, यदि मैंने कर ली तो कौन-सी
कयामत आ गई! कल चौपाल में मास्टर अखबार पढ़कर सुना रहा था कि हमारी सरकार
ने किसी दूसरे मुल्क की कम्पनी से तोपों का सौदा किया। एक दलाल तीस करोड़
रुपया सीधा खा गया, उसने डकार भी नहीं लिया।
जीतो : बड़ा
आदमी होगा, हजम कर गया होगा। तुम्हारे जैसा नहीं, तुम तो दो बूंद पी लेते
हो, हजम नहीं कर सकते। सबकुछ उलट देते हो। रात को मुंह और कपड़े सभी गंदे
थे, मुझसे रोज नहीं धोए जाते।
मिलखी : वह तो रात सरदारे ने घर की निकली पिला दी। वहीं ट्यूबैल पर बैठकर पी।
जीतो : तुम सरदारे लोगों के पास क्या लेने गए थे?
मिलखी : वह भी सरदारों का खास आदमी है। यह सरदार ने जो प्लान बनाई
है, उसमें बाड़ेवालों को भड़काने की ड्यूटी मेरी लगी है और जाटों को
भड़काने की सरदारे की। इसे कहते हैं तिकोनी प्लान।
जीतो : तिकोनी?
मिलखी : तिकोनी नहीं समझती, जो अस्पतालों के बाहर खिंची होती है?
फैमली प्लानिंगवाली, वह होती सरकार की गर्भनाशक प्लान और सरदार की प्लान
है सर्वनाशक प्लान। सरदार, सरदारा और मैं - और मैं, सरदारा तथा सरदार।
( शैतानों की तरह हॅंसता हुआ चला जाता है )
जीतो : हूं, सरदारों की प्लान : यह इतना बेशरम हो गया है कि सरदार
की तमाम ज्यादतियां भूल गया है कि इसी सरदार ने मेरी इज्जत को हाथ डाला
था। तब यह किस तरह आग-बबूला हो गया था परंतु सरदार ने लल्लोपच्ची करके इसे
चुप करवा दिया था। तब भी यह दो बूंद पीकर सबकुछ भूल गया था। अब कहता है कि
सरदार शहरवाली कोठी दे देगा, इसको रोज रात नशे की गोली खिलाकर उलटा कर
देगा और फिर मुझ अकेली की इज्जत को हाथ डालेगा। यह भी सरदार की तिकोनी
प्लान होगी - मैं, यह और सरदार - सरदार, मैं और यह। परंतु मैं इनकी तिकोनी
प्लान कामयाब नहीं होने दूंगी। ( कान के बाले उतारते हुए ) मैं इस पाप की
कमाई पर थूकती भी नहीं। मैं - मेरे सभी भाई हाथों की कमाई खानेवाले हैं।
यह सरदार खुद भी खाली-हराम की खानेवाले और दूसरों को भी हराम की खाने की
आदत डालना चाहते हैं - मैं यह नहीं होने दूंगी। कभी भी नहीं होने दूंगी।
कभी भी नहीं होने दूंगी।
( कैला आता है - जीतो की अंतिम बात वह सुन लेता है। )
कैला : क्या नहीं होने देगी भाभी?
जीतो : यह जो गांव में इतनी मुसीबत हुई है, उसके बारे में सोच रही
थी। पांच दिन हो गए हैं, न कोई दिहाड़ी पर गया, न कोई गोबर-कूड़ा फेंकने
गई, बच्चे लस्सी-पानी को तरस गए।
कैला : दिहाड़ी पर तो भाभी
जब कोई फैसला होगा तभी जाएंगे। बाकी औरतों के गोबर-कूड़ा उठाने के बारे
में भी सोचना पड़ेगा। हम इनका गोबर-कूड़ा उठाते रहें और यह हमारे साथ
बदसलूकियां करते रहें। हमारा खेतों में घुसना बंद कर दें - मिलखी भाई कहां
गया?
जीतो : जहां जाया करता है, मांड लगी पगड़ी बांधकर।
कैला : देख लो भाभी, इस बार हमने वोट सरदारों को नहीं दी थी। परंतु
सरदार हमारी मदद के लिए आया है। उसने पैंतालीस रुपए दिहाड़ी पर चार-पांच
लोगों को लगा भी दिया है, जबकि बाकी जाट अड़े हुए हैं। हम सरपंच को अपना
समझते थे परंतु वह भी जाटों का ही साथ देता है।
जीतो : इस
तरह मत कहो भाई, सरदार आपकी मदद नहीं कर रहा, वह तो अपना ही फायदा सोचता
है। वह तो चाहता है कि आप लोग दिहाड़ी पर न जाओ, ताकि जाट फिर उसकी मशीन
लेकर कटाई करें, और वह उनसे मुंहमांगा भाड़ा वसूल करे।
कैला : यह तुम्हें कैसे पता?
जीतो : सरदार का जितना मुझे पता है, और किसी को नहीं पता, वह एक कमीना आदमी है।
कैला : परंतु मिलखी भाई तो उसके कसीदे पढ़ते हुए थकता नहीं।
जीतो : यही तो मुझे दुःख है। मेरे आदमी की हड्डियों में पानी डाल
दिया, आप मेरी मानो, जाटों के साथ बैठकर फैसला करो, इस तरह तो बाड़े में
बच्चे भूख से मर जाएंगे।
कैला : इस बारे में तो हम हर समय सोचते हैं, परंतु अपने लोग मानेंगे नहीं। वे कहते हैं इस बार दोटूक फैसला हो ही जाए।
जीतो : तुम उनको समझाओ सरपंच फिर भी उनका भला चाहने वाला है, सरदार नहीं, सरदार तो किसी का भला चाहने वाला नहीं।
कैला : अच्छा, मैं बात करके देखता हूं बाकी लोगों से।
जीतो : मैं भी सारी बात करूंगी, तुम मेरी बातों का ध्यान रखना।
कैला : अच्छा।
( जाता है, जीतो दूसरी तरफ जाती है। )
दृश्य: दो
( गांव की चैपाल )
लखासिंह : देखो सरपंचजी, इस तरह तो ये बाड़ेवाले सिरे चढ़े
जाएंगे। भैये नहीं आए तो इसका मतलब यह नहीं कि मुंहमांगी दिहाड़ी दे दें।
सरपंच : मुंहमांगी न दो परंतु फैसला तो करना ही पड़ेगा। सभी दिहाड़ी
करने वाले हड़ताल पर बैठे हैं। फसलें इसी तरह खेतों में खड़ी रहेंगी तब भी
तो तबाही है।
लखासिंह : हड़ताल खुलवाने का और तरीका भी हम जानते हैं।
सरपंच : क्या?
लखासिंह : हम भी उनका बायकाट करेंगे। अपने खेतों में उनका जंगलपानी
बंद कर देंगे तभी उनको होश आएगा। बाकी रही फसलों की बात, अब सरदारों की
कम्बाइन गांव में आ गई है। भूसे का नुकसान ही होगा, परंतु इन कामगरों के
आगे हम झुक नहीं सकते।
सरपंच : लखासिंह, यह क्यों भूलते हो
कि इन कामगरों के साथ हमारी पुश्तों से सांझ है! यह धरती हमें भी रोटी
देती है, यह धरती उनको भी रोटी देती है। जल्दबाजी में आकर हमें यह सांझ
नहीं तोड़ती चाहिए।
लखासिंह : परंतु चाचा, यह भी तो अंधेरगर्दी है कि सीधा तीस रुपए से पैंतालीस रुपए ही दिहाड़ी मांगनी शुरू कर दें।
सरपंच : मुझे तो लगता है वे किसी के उकसाने पर ऐसा कर रहे हैं, यदि हम थोड़ी समझदारी से काम लें, सब ठीक हो जाएगा।
लखासिंह : उकसाने का क्या मतलब है?
सरपंच : मुझे यह सब सरदार की चाल लगती है।
लखासिंह : वह कैसे?
सरपंच : तुम तो जाननते ही हो कि सरदारा सरदारों का खास आदमी है और
यह भी जानते हो कि मिलखी बाड़ेवाला भी हर समय सरदारों की कोठी में घुसा
रहता है।
लखासिंह : और सरदार नशापानी बेवजह नहीं करवाता, कोई
न कोई काम उसे लेना होता है। यह कल रात की बात है कि मिलखी सरदार लोगों के
साथ बैठकर देर तक पीता रहा। सरदारे और मिलखी को जब मैंने एक साथ देखा,
मुझे तो तभी खटक गई कि दाल में कुछ काला है, ऐसा करो, सभी जाटों को इकट्ठा
करो, कोई न कोई हल निकाल लेंगे।
लखासिंह : चाचा, बाड़ेवाले तुम्हारे असर में हैं, यदि तुम समझा सकते हो तो समझा लो, नहीं तो हमें राह ढूंढनी पड़ेगी।
( कैला आता है। )
कैला : न, सभी राहें आपको ही सूझती हैं, हमें नहीं सूझती?
लखासिंह : मैंने तुम्हें कुछ नहीं कहा, आते ही हलके कुत्ते की तरह शुरू हो गए हो।
कैला : हर बात की एक हद होती है, यह ठीक है कि जमीनों के मालिक आप
हैं, परंतु इसका मतलब यह नहीं कि हमारी रोजी-रोटी के मालिक भी आप हैं।
लखासिंह : यदि हम काम नहीं दें तो भूखे मर जाओगे।
कैला : और यदि हम काम न करें तो फसलें खड़ी की खड़ी रहें। यह आप लोगों की सरदारियां हम लोगों के सिर पर हैं।
लखासिंह : देखे हुए हैं तुम जैसे रोजी-रोटीवाले। जूठन खानेवाले।
सरपंच : आप क्यों पागल हो रहे हैं! कोई काम की बात करो। एक-दूसरे को ताने दे रहे हो। इस तरह नहीं किसी बात का फैसला होता।
लखासिंह : फैसला तो चाचा, इन लोगों के साथ किसी और ढंग से ही होगा।
हम कोई चमार हैं जो इन बड़े शाहों से खैर मांगने जाएं। हम मालिक हैं गांव
के, पूरा साल ये लोग हमारे यहां से घास ढोते हैं। साग-सब्जी तोड़ते हैं,
लस्सी-पानी ले जाते हैं।
कैला : घास-चारा, साग-सब्जी,
लस्सी-पानी अपनी गरज से देते हो, कोई दान नहीं देते। जमीनें आपकी, मेहनत
हमारी इसलिए बराबर के हिस्सेदार हैं। दिहाड़ी लेंगे पूरी, रोटी खाएंगे
अपनी। घास-चारा लेंगे तो पहले तय करके लेंगे। माल-मवेशी रखेंगे अपना,
लस्सी-पानी पीएंगे अपनी। हम खुद अपने माल-मवेशी का गोबर-कूड़ा संभालेंगे
और अपने माल-मवेशी का गोबर-कूड़ा सॅंभालना आप खुद, तब पता चलेगा कि किस
भाव बिकती है।
लखासिंह : और आपका भी लस्सी-पानी जब बंद हो जाएगा तो भाव पता चल जाएगा-बड़े शाह, देखो।
कैला : यदि शाह हम नहीं हैं तो शाह आप भी नहीं हैं, जाओ, जाकर देखो
बहीखातों पर अपने पूर्वजों के अंगूठे-नंग कहीं के - पांच किल्ले जमीन पर
अकड़े फिरते हैं, इतना नहीं पता कि कल पांच शरीकों में यह बॅंट जाएगा।
लखासिंह : बॅंटनी होगी तो तुम लोगों से माॅंगने नहीं आएॅंगे।
कैला : बच्चू, यह जो खाली बैठकर खाने की आदत पड़ गई है, आखिर आपको मांगना ही पड़ेगा।
लखासिंह : चाचा, समझा लो इसे, मैं लिहाज कर रहा हूं। यह कुजात आगे ही बढ़ता जा रहा है।
कैला : यह कुजात किसको कह रहे हो? एक बार फिर से कहना, मैं सिर न फोड़ दूं।
लखासिंह : एक बार क्या, मैं सौ बार कहूंगा - कुजात-कुजात।
( ललकारा मारता है। )
कैला : ठहर जा, तेरी बहन की....
(
सरपंच बीच में आकर लखासिंह को परे धकेलता है - कैला ललकारा मारता है। जब
पीठ इधर करता है तब लखा ललकारा मारता है - यह लड़ाई खूब गरम होती है।
‘साले, बंदूक से उड़ा दूंगा’ कहता हुआ लखा चला जाता है। )
सरपंच : मूर्खों, तुम लोगों को हुआ क्या है?
कैला : चाचा, तुम यों ही बीच में आ गए - देख लेते आज बड़े उग्रवादी को।
लखासिंह : ( दुबारा मुड़कर आता है ) ओ तुम्हें उग्रवादी बनकर दिखा देंगे। लाश तुम्हारी खुलेआम न सड़ती रहे तो कहना।
( सरपंच लखे को वापस धकेलता है। मिलखी आकर कैले को पीछे से आलिंगन में बांध लेता है। )
मिलखी : ओ कैले, होश कर, क्या हुआ है तुम्हें?
कैला : मुझे क्या होगा, इन्हीं को अफारा हुआ है।
लखासिंह : ( फिर मुड़कर आता है ) तुम्हें बता देंगे किसको अफारा हुआ
है। ( सरपंच फिर उसे परे धकेलता है। मिलखी जाकर हाथ जोड़ता है। ) जाओ भाई,
जाओ, आप ही बड़े हैं। ( लखासिंह चला जाता है। )
सरपंच : जिस बात का मुझे डर था वही होकर रही, यह अब जाकर जाटों को उकसाएगा। जो फैसला होना भी था, वह नहीं हो सकेगा।
मिलखी : सरपंच, हमें अपनी इज्जत बेचकर फैसला नहीं करना।
कैला : न भई, तुमने उसके सामने हाथ क्यों जोड़े?
मिलखी : सिर फूट जाते तभी अच्छा रहता?
कैला : फूट जाने देते सिर। अब वह मेरी या अपनी कही हुई बातें भूल
जाएगा, परंतु तुम्हारे जुड़े हुए हाथ याद रखेगा। जाकर चैपाल में ललकारे
मारेगा-मैंने तो कैले को वहीं चित कर देना था यदि बाड़ेवाला मिलखी हाथ न
जोड़ता।
मिलखी : ओ देखो लोगो, आज कोई भले का जमाना रहा है? मैंने बीच पड़कर लड़ाई खत्म करवाई, तो मुझे ही बुरा-भला कहने लगा है?
सरपंच : जाओ अपने घर अब, किसी का सिर फूट जाता तो थाना यहां चढ़ा
आता। दोनों की फौजदारी का पर्चा कट जाता और गवाही के चक्कर में मेरा बुरा
हाल हो जाता।
मिलखी : चल ओ कैले, घर। गुस्सा थूक दे। समझ ले, मुझसे गलती हो गई।
सरपंच : मैंने तो सरपंची सॅंभाली थी कि सभी मिलजुलकर गांव को कुछ
सुधारेंगे परंतु यहां कोई न कोई विपदा बनी रहती है। पिछले साल दो भैये
मारे गए। थाने ने चढ़ाई रखी कि उग्रवादी गांव में छिपे हुए हैं, अब इन
दिहाड़ीवालों की विपदा आ गई। पता नहीं गांव को किसी ने अभिशाप दे दिया है।
गांव को ही नहीं, अब तो ऐसा लगता है कि सारी धरती ही शापित हो गई है, कोई
शैतान रूह आ गई है गांव में।
जीतो : ( आते हुए ) सरपंचजी, यह शैतान की रूह नई नहीं। यह पहले से ही यहीं है।
सरपंच : जीत कौरे, क्या बात है? कौन-सी है शैतान की रूह?
जीतो : सरपंचजी, यह सारी आग सरदार की लगाई हुई है। अब आपसे क्या
छिपाव, मेरा अपना आदमी उसके आगे बिका हुआ है। वह और सरदारा मिलकर दोनों
तरफ आग लगा रहे हैं - ( इधर उधर देखकर ) कहीं कोई देख न ले, इसलिए मैं
चलती हूं। परंतु एक बात साफ है, यह सारी आग उस सरदार की लगाई हुई है।
दोनों तरफ यह बात सामने वाली है - आप पहले हमारे बाड़े में बात शुरू करें
- मैं भी वहां बात करूंगी।
सरपंच : अच्छा, तुम चलो, मैं दुपहर के समय आउंगा।
( जीतो एक तरफ जाती है, सरपंच दूसरी तरफ आता है। )
दृश्य: तीन
( सरदार की बैठक )
सरदार : मिलखी, फिर बात कहां तक पहुंची?
मिलखी : जहां हम पहुंचाना चाहते थे।
सरदार : क्या मतलब?
मिलखी : मतलब यह कि दोनों पार्टियां लड़ने को आ जाएं, परन्तु लड़ें न।
सरदार : मैं समझा नहीं?
मिलखी : सरदारजी, जो लड़ने के लिए आ जाएं, परंतु लड़ें नहीं यानी
सिर फोड़ने पर आ जाएं परंतु फोड़ें नहीं तो चौधराहट होगी हमारे पास, परंतु
यदि सिर फूट जाएं तो चौधराहट जाएगी थानेदार के पास, सो बात वहां तक
पहुंचाई है, जहां तक कि चैधराहट हमारे पास ही रहे। जाटों में लखे को और
बाड़ेवालों में से कैले को आपस में भिड़ा दिया है, परंतु जब सिर फूटने की
नौबत आ गई, तब उनको छुड़ा दिया ताकि दोनों लाल-सुर्ख होकर अपने-अपने लोगों
के पास पहुंचे, बात को गरम करें और सरपंच जैसे लोग यदि सुलह भी करवाना
चाहें तो उलटे जूते उन्हें आ लगें।
सरदार : बस मिलखी, मैं
यही चाहता था। सरपंच को पूरी तरह नीचा दिखाया जाए। ताकि दुनिया जान जाए कि
गांव का मालिक सरदार है, वह टटपुंजिया सरपंच नहीं।
मिलखी :
सरपंच की हालत तो सरदारजी, वहां देखने वाली थी। वह हाथ जोड़ रहा था - कभी
कैले के आगे और कभी लखे के आगे। परंतु उसकी कोई नहीं सुन रहा था। जब मैं
जरा जोर से बोला, दोनों थम गए। कहने लगे, भई मिलखी, हम तो तुम्हारे हाथ
बॅंधे गुलाम हैं। एक बात है सरदारजी, मैंने बाड़ेवालों में अपना काम पूरा
कर दिया है - परंतु जाटों में सरदारे का काम जरा ढीला है।
सरदार : ससुरा पी ज्यादा लेता है, आज उसे पूछता हूं।
मिलखी : रात मुझे भी पिलाने पर उसने बहुत जोर लगाया, परंतु मैंने
कहा, मैं नहीं पीउंगा। यदि पी लेता तो फिर बाड़े में मेरी बात कौन सुनता?
सरदार : मिलखी, समझदार आदमी की निशानी भी यही है कि समय आने पर पी
ले और समय आने पर सूफी हो जाए, बाकी जो हमारी प्लान है उसको किसी को पता
नहीं चलना चाहिए।
मिलखी : नहीं जी, पता कैसे लग सकता है!
सरदार : अपनी जीतो को भी नहीं बताना - वह भी बहुत चालाक है।
मिलखी : जी, आपको कैसे पता?
सरदार : ( सॅंभलकर ) मेरा मतलब है कि औरतें होती ही बहुत चालाक हैं - इनके पेट में कोई बात पचती नहीं।
मिलखी : मैं कहां उसे बताता हूं! रात को पूछ रही थी कि दिन भर कहां
रहे हो - मैंने पकड़ाई नहीं दी। सुबह पूछने लगी तब भी मैंने टाल दिया।
सरदार : बस, सीजन खत्म होते ही तुम्हें ले जाउंगा शहरवाली कोठी। ऐश
करोगे बच्चू। यहां गांव में तो रात पड़ने से पहले ही अंधेरा हो जाता है -
वहां रात पड़ने पर भी अंधेरा नहीं होता, सबकुछ चमक-चमक जाता है। हम
तुम्हारी जीतो को भी चमका देंगे। दो दिन और दिहाड़ीवाले काम पर नहीं जाने
चाहिए, परसों से कम्बाइन की बुकिंग शुरू करेंगे। दो सौ पचास रुपए किल्ला
लिया करेंगे। बुकिंग के समय एक सौ पचास एडवांस रखवाएंगे। पिछले साल की
सारी कमी पूरी करेंगे।
मिलखी : जाट तो जी उजड़ जाएंगे। उधर बाड़ेवाले भूखों मरेंगे।
सरदार : उजड़ जाएं हमें क्या? बाड़ेवाले भूखे मर जाएं, तुम्हें क्या?
मिलखी : हांजी, मुझे क्या? मैं तो शहरवाली कोठी में चला जाउंगा।
सरदार : मिलखी, यह जमाना दिमाग का है - पैसे से पैसा खींचने का है।
हमने डेढ़-दो लाख यों ही नहीं लगा दिया। ट्रांसपोर्ट की बजाय इस काम में
ज्यादा कमाई है - न किसी टैक्सवाले का डर, न किसी अफसर का डर।
मिलखी : अफसर का कैसा डर है, वे तो आपके सामने पानी भरते हैं।
सरदार : ऐसे ही पानी नहीं भरते। पैसा लगता है। पिछले जिला ट्रांसपोर्ट अफसर को मारुति गाड़ी मैंने ही लेकर दी थी।
मिलखी : हां जी, एक मारुति उसे देकर चार मारुतियां आपने अपनी बना लीं।
सरदार : इसे व्यापार कहते हैं। पहले व्यापार करते थे सेठ, हमें तो अक्ल ही अब जाकर आई है।
मिलखी : हांजी, ऐसी अक्ल आई है कि अगली-पिछली सारी कसर निकल गई।
सरदार : अच्छा, अब तुम सरपंच के पास पहुंचों, मैं भी जरा रुककर पहुंचता हूं- मेरी दवा का समय हो गया है, जरा पीकर आता हूं।
मिलखी : कुछ बूंदें मेरे लिए भी बचा लेना।
सरदार : कंजर, बस एक-दो दिन रुक जाओ, फिर जी भरकर पिलाएंगे।
( मिलखी एक तरफ जाता है। )
सरदार : आदमी एक नम्बर का है। जो काम कह दो, पूरा करता है। बस,
चिडि़या का दूध इससे कभी मॅंगवाएंगें शहर की कोठी में एक बार चल पड़े, फिर
देखते हैं जीतो कितने पानी में है....
( बोतल से शराब पीता है और मंच से बाहर चला जाता है। )
दृश्य: चार
(पंचायत घर। सरदार और सरपंच बातें करते हैं। मिलखी पास ही है।)
सरदार : देखो सरपंचजी, मैं तो चाहता हूं कि गांव किसी बात पर दो फाड़ न हो जाए, इसी में सभी का फायदा है।
सरपंच : दो फाड़ नहीं ही होना चाहिए परंतु लगता है कि कोई शैतान दिमाग दोनों तरफ उल्टी चाल खेल रहा है।
सरदार : उस शैतान दिमाग की शिनाख्त होनी चाहिए।
मिलखी : उसका मुंह काला करके उसे गधे पर चढ़ाकर सारे गांव में उसका जुलूस निकालना चाहिए।
सरपंच : करेंगे तो हम यही-मुंह भी काला करेंगे और जूते भी लगाएंगे।
सरदार : अब जाट सभी मेरे पास आए कि मैं अपनी कम्बाइन कटाई के लिए दे
दूं, परन्तु मैंरे साफ इनकार कर दिया कि जब तक बाड़ेवालों के साथ फैसला
नहीं होता, मैं कम्बाइन नहीं चलाउंगा।
मिलखी : वे लोग तो कह रहे थे कि दौ सौ रुपए की जगह दो सौ पचास रुपए किल्ला ले लो, परंतु सरदारजी ने बिलकुल इनकार कर दिया।
सरपंच : ठीक ही तो है, सरदारजी से ज्यादा गांव का भला चाहनेवाला भला कौन होगा।
सरदार : बाड़ेवाले भी मेरे पास आए थे, मैंने साफ कह दिया कि आपकी
पैंतालीस रुपए दिहाड़ी की मांग ठीक नहीं, चाहे हमसे पैंतालीस रुपए ही ले
लो परंतु छोटे किसान किस तरह दे सकेंगे।
मिलखी : सरदारजी ने
उनसे कहा कि उनसे पैंतालीस की जगह बेशक पचास रुपए ले लो, साठ ले लो, बड़े
लोगों का क्या फर्क पड़ता है, परंतु सभी लोग थोड़े ही दे सकते हैं -
सरदारजी तो चाहते हैं कि सभी का भला हो।
( जीतो आती है। )
जीतो : सरदारजी जितना सभी का भला चाहते हैं, वह किसी से भूला नहीं।
सरपंच : जीत कौर, तुम? तुम्हें किस तरह पता है?
मिलखी : इसको क्या पता होगा? भला औरतों को किसी बात का पता चलता है?
जीतो : औरतों को किसी और बात का पता न हो, परंतु अपने आदमी का जरूर
पता रहता है। ( सरपंच से सम्बोधित होकर ) सरपंचजी, यह आदमी चाहे मेरा ही
है, परंतु मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं, जिन्हें कमीना आदमी कहते हैं,
यह उनमें से एक है और जो कमीनगी करता है, वह इस सरदार के इशारे पर।
सरदार : ( झेंपकर ) ओ मिलखी, चुप करवा इसको - मेरी औरत इस तरह बात करे तो वहीं चित कर दूं।
जीतो : आए तो यह आगे, चित करनेवाले के हाथ न तोड़ दिए तो कहना और जो
उसे ऐसा करने के लिए कहता है उसकी जुबान जलकर खाक हो जाए।
मिलखी : चुप हो जाओ जीतो, चुप हो जाओ, बड़ों के साथ टक्कर नहीं लेते।
जीतो : बड़े होंगे अपने घर, हम लोग काम करते हैं और इज्जत की खाते हैं।
सरदार : देखो तो बड़ी इज्जत की खानेवाली, गोबर-कूड़ा उठाने वालों के भी मिजाज तो देखो....
जीतो : गोबर-कूड़ा उठाती हूं तो मेहनत की खाती हूं। तुम्हारी तरह हराम की गंदगी नहीं खाती।
सरदार : चुप हो जाओ कुजात - मिलखी, बंद करो इसका मुंह।
मिलखी : मिलखी अब क्या करे, मिलखी की जात तो आपने पहले ही बता दी। अब मिलखी और आपकी क्या सांझ?
( सरदार खिसकने लगता है तो लखा आगे से रोक लेता है। )
लखासिंह : सरदार, तुम अब कहां भाग रहे हो? तुम्हारे सभी प्लान हमें पता चल गए हैं।
सरपंच : प्लान?
( कैला दूसरे छोर से आता है। )
कैला : हां सरपंचजी, इसकी प्लानें, बड़े लोगों की प्लानें। भाइयों को लड़ाओ और अपना फायदा निकालो।
जीतो : हां सरपंचजी, इस सरदार ने मेरे आदमी की ड्यूटी लगाई थी कि
बाड़े वालों को उकसाए और सरदारे की ड्यूटी लगाई कि जाटों को उकसाए ताकि
इनका समझौता न हो सके और इसे अपनी मशीन का मुंहमांगा मोल मिले।
सरदार : यह झूठ है।
मिलखी : यह सच है।
सरदार : सच है सच सही, बिगाड़ लो जो मेरा बिगाड़ना है।
कैला : तुम्हारा तो कुछ बिगाड़ना है, अकेले नहीं, सभी मिलकर बिगाड़ेंगे। एक-मुट्ठ होकर।
समवेत : एक मिट्टी के पूत सभी हम
सच हमने जान लिया है
सांझा दुश्मन कौन हमारा
उसको हमने पहचान लिया है।
( सभी बांहें उठाते हैं। सरदार भागने की मुद्रा में है, जब फेड आउट होता है। )
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गुरुशरण सिंह के इस नाटक "एक ही मिट्टी के पूत" का पीडीएफ़ यहां से फ्री डाउनलोड किया जा सकता है:
सांस्कृतिक योद्धा नाटयकर्मी गुरुशरण सिंह जी के बारे में और उनका नाटक पढ़कर अच्छा लगा . ऐसे कम व्यक्ति होते हैं जो किसी की परम्परा को जीवित रखते हुए आगे बढ़ाते हैं .... आभार
जवाब देंहटाएंPhone par itna lamba natak padhna mushkil hai... Kal padhunga p par.. Thank you for sharing...
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
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