डॉ. इन्द्र बिहारी सक्सेना का एक गीत
घात लगाए जहां भेडि़ए, मुंह बाए घडि़याल,
कैसे फिर मंगलमय होंगे आने वाले साल।।
बैठ पंक्ति में अब कौवों की, कोयल ने स्वर बदले,
हंसों के आदर्श बन गए मिथ्याचारी बगुले।
अब तो संसद भी लगती है कुंजड़ों की चौपाल।।
घने हुए बरगद, आंगन की हर तुलसी मुरझाई,
कहीं मख़मली जूती पग में, रिसती कहीं बिवाई।
जूठन तक को जहाँ तरसते हों नन्हें गोपाल।।
चिथड़ों की मोहताज बनी झौपडि़यों की तरुणाई,
गिद्धों की नज़रों को खलती, हर नटखट अंगड़ाई।
नैतिक मूल्यों के भविष्य की बुझने लगी मशाल।।
तन झुलसाए जेठ-दोपहरी, पौष बदन ठिठुराए,
प्रलयंकारी घन गर्जन से, धरा, गगन अकुलाए।
सुरसा बनकर खड़ी निरंकुश मंहगाई विकराल।।
बलात्कार, डाके, हत्याऐं, चोरी, रिश्वतख़ोरी,
मेहनतकश रोटी को तरसें, गुण्डे भरें तिजोरी।
फिर भी क्यों इस युवा-रक्त में आता नहीं उबाल।।
आने वाले साल
घात लगाए जहां भेडि़ए, मुंह बाए घडि़याल,
कैसे फिर मंगलमय होंगे आने वाले साल।।
बैठ पंक्ति में अब कौवों की, कोयल ने स्वर बदले,
हंसों के आदर्श बन गए मिथ्याचारी बगुले।
अब तो संसद भी लगती है कुंजड़ों की चौपाल।।
घने हुए बरगद, आंगन की हर तुलसी मुरझाई,
कहीं मख़मली जूती पग में, रिसती कहीं बिवाई।
जूठन तक को जहाँ तरसते हों नन्हें गोपाल।।
चिथड़ों की मोहताज बनी झौपडि़यों की तरुणाई,
गिद्धों की नज़रों को खलती, हर नटखट अंगड़ाई।
नैतिक मूल्यों के भविष्य की बुझने लगी मशाल।।
तन झुलसाए जेठ-दोपहरी, पौष बदन ठिठुराए,
प्रलयंकारी घन गर्जन से, धरा, गगन अकुलाए।
सुरसा बनकर खड़ी निरंकुश मंहगाई विकराल।।
बलात्कार, डाके, हत्याऐं, चोरी, रिश्वतख़ोरी,
मेहनतकश रोटी को तरसें, गुण्डे भरें तिजोरी।
फिर भी क्यों इस युवा-रक्त में आता नहीं उबाल।।
० डॉ. इन्द्र बिहारी सक्सेना
- गली नं. 13, पूनम कॉलोनी, कोटा जंक्शन
बहुत सुन्दर भाई जी ||
जवाब देंहटाएंसचमुच ऐसा ही है परिदृश्य ||
आभार सर ||
सुन्दर रचना.
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