गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

अदम गोंडवी की कविता 'चमारों की गली'


(अदम गोंडवी भी नहीं रहे। साहित्यिक प्रतिष्ठानों और प्रतिष्ठित साहित्यिकों की उपेक्षा और अवमानना को दरकिनार करते हुए सिर्फ मजलूम और साहिबे किरदार के सामने सर झुकाने वाले, अदम्य वैचारिक और जनपक्षीय प्रतिबद्धता से ओत-प्रोत अदम गोंडवी एक असाधारण रूप से साधारण इंसान थे। वे आमजन के कवि थे और उन्हीं के साथ सड़क के आदमी। बुझे चूल्हों से संवाद करती, संसद का फरेब जानती, विकास के आंकड़ों की हकीकत से गुजरकर चमारों की गली में ले जाती अदम की ग़ज़लें मजलूमों और मुफलिसों की पीड़ा, उसके जख्मों और आक्रोश का जिंदा दस्तावेज हैं। राजनैतिक ग़ज़लों की दुष्यंती परंपरा को वे एक नये मुकाम तक ले गए, उनकी शायरी में घुला तेज़ाब समूची व्यवस्था में खदबदाहट मचा देता है। होशोहवाश में बगावत का रास्ता दिखाने वाले अदम गोंडवी क्रांति की निरंतरता में यक़ीन करते थे और नई पीढियों की समझ और उनमें बदलाव की ललक तथा क्रांतिकारी उमंगों के प्रति काफी आशावादी थे। उनके क्रांतिकारी, जनपक्षीय सरोकारों और एक न्यायपूर्ण समाज के सपने को साकार करने की उनकी अदम्य ललक और प्रतिबद्धता को सलाम करते हुए हम यहां उनकी बहुचर्चित नज़्म ‘चमारों की गली’ प्रस्तुत कर रहे हैं। - रवि कुमार, रावतभाटा)

चमारों की गली 

  • अदम गोंडवी


आइए महसूस करिए जिंदगी के ताप को

मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर


मर गयी फुलिया बिचारी इक कुएं में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी


आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा

मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा


कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबरायी हुई

लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलायी हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है

जानते हो इसकी खामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को

सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाये खाट को

डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से

घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोयी हुई जज्बात में


क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

होनी से बेखबर कृष्ना बेखबर राहों में थी

मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी

चीख निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गयी

छटपटायी पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गयी

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया

वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हंस रही थी मौज में

होश में आयी तो कृष्ना थी पिता की गोद में

जुड़ गयी थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था

जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है

पूछ तो बेटी से आखिर वो दरिंदा कौन है

कोई हो संघर्ष से हम पांव मोड़ेंगे नहीं

कच्चा खा जाएंगे जिंदा उनको छोड़ेंगे नहीं


कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें

और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुंह काला करें

बोला कृष्ना से बहन, सो जा मेरे अनुरोध से

बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गयी इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में

वे इकट्ठे हो गये सरपंच के दालान में

दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लंबी नोक पर

देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर

क्या कहें सरपंच भाई! क्या जमाना आ गया

कल तलक जो पांव के नीचे था रुतबा पा गया

कहती है सरकार कि आपस में मिलजुल कर रहो

सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहां

पड़ गया है सीप का मोती गंवारों के यहां


जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है

हाथ पुट्ठे पे न रखने देती है, मगरूर है

भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ

फिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ

आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गयी

जाने-अनजाने वो लज्जत जिंदगी की पा गयी

वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गयी

वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है

हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की

गांव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी

बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया

हाथ मूंछों पर गये माहौल भी सन्ना गया


क्षणिक था आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था

हां, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था

रात जो आया न अब तूफान वह पुर जोर था

भोर होते ही वहां का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में

एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में

घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -

‘‘जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आये सामने’’

निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर

एक सिपाही ने तभी लाठी चलायी दौड़ कर

गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया

सुन पड़ा फिर ‘‘माल वो चोरी का तूने क्या किया’’

‘‘कैसी चोरी माल कैसा’’ उसने जैसे ही कहा

एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा


होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर

ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -

‘‘मेरा मुंह क्या देखते हो! इसके मुंह में थूक दो

आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूंक दो’’

और फिर प्रतिशोध की आंधी वहां चलने लगी

बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

दुधमुंहा बच्चा व बुड्ढा जो वहां खेड़े में था

वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था

घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे

कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे

‘‘कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएं नहीं

हुक्म जब तक मैं न दूं कोई कहीं जाए नहीं’’

यह दरोगा जी थे मुंह से शब्द झरते फूल से

आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से


फिर दहाड़े ‘‘इनको डंडों से सुधारा जाएगा

ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा’’

इक सिपाही ने कहा ‘‘साइकिल किधर को मोड़ दें

होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें’’

बोला थानेदार ‘‘मुर्गे की तरह मत बांग दो

होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो

ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है

ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है’’

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल

‘‘कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल’’

उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को

सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को

धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को

प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को


मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आएँ मेरे गांव में

तट पे नदियों की घनी अमराइयों की छांव में

गांव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही

या अहिंसा की जहां पर नथ उतारी जा रही

हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए

बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए! 


 






मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

ढेकळ (मिट्टी का ढ़ेला)


स बार अभिव्यक्ति के 38वें अंक से हाड़ौती भाषा जो राजस्थानी का ही एक रूप है का एक गीत प्रस्तुत है। इस गीत में मिट्टी का ढ़ेला आप से अपनी बात कर रहा है कि वही है जिस से सारी सृष्टि का निर्माण हुआ है। 
 
हाड़ौती (राजस्थानी) गीत 

ढेकळ (मिट्टी का ढ़ेला)
  •  विष्णु 'विश्वास'
 
बना रूप अर बना कदर को,
न्ह कोयाँ सूँ राळ्यो - ढाळ्यो।
सब नै छोड़ दियो तो कांई,
धूप, बाळ, पाणी को पाळ्यो।।

ज्याँ कै लेखै बना बात ईं कण-कण होर बखर जाउँ,
ऊण्डा-ऊण्डा फाळ्या सह-सह अन्न-धन्न म्हूँ नपजाऊँ,
तो भी जस कोई न्ह ईं लेखै ही म्हूँ  बेकळ छूँ।
काँई ताना मारो म्हारै म्हूँ ढोयो ढेकळ छूँ।।

सौ-सौ बार गुंधूँ छूँ म्हूँ पण चाक चढूँ इतराऊँ,
पोवणी दिवाणी अर कै धूपाड़ो बण जाऊँ,
जीबा को चुस तो म्हारै भी चाहे रोज आग म्ह न्हाऊँ,
जण-जण की तस मेटू म्हारी सोचू तो मर जाऊँ,
बाळक-बोल अबोलक म्हूँ, बड़-बूढ़ा की अकल छूँ।
काँई ताना मारो म्हारै म्हूँ ढोयो ढेकळ छूँ।।

चांदी की कमजोरी कै वा ऐर-सेर को धन छै,
चूमासा म्ह काँसा पीतळ को बदरंग बदन छै,
बात करूँ हीरा-पन्ना की व्ह तो रूप-रतन छै,
जाणै जे ही जाणै छै कुण या मँ कण-कण छै,
कन्या पीण्ड बणा पूजै ईं कै अहसान तळै छूँ।
काँई ताना मारो म्हारै म्हूँ ढोयो ढेकळ छूँ।।

म्हारै हिवड़ै घणी रंधी तपस्याँ की जाई सीता,
अगन परीछा द्याँ पाछै भी रूस्यो रह्यो विधाता,
सपणा कद साँचा होया जै घोळ-घोळ कै पीता,
कतणी बार पढैर धरदा व्हा की व्हाई छै गीता,
अन्त घड़ी म्हं आडो आऊँ मूंडै तुळसी-दळ छूँ।
काँई ताना मारो म्हारै म्हूँ ढोयो ढेकळ छूँ।।

यूँ तो सारी की सारी म्हारी ही माया छै,
ऊँळी-सूँळी फर-फर चर ले राम की गायाँ छै,
छोटो मूण्डो बड़ी बात ये सब म्हारा जाया छै,
म्हारी असल शकल सूरत तो करषाणी काया छै,
पाणत करती हालण का म्हूँ पावाँ की पगतळ छूँ।
काँई ताना मारो म्हारै म्हूँ ढोयो ढेकळ छूँ।।

- ग्राम बालाखेड़ा, ग्राम पोस्ट बालदड़ा, तहसील अंता, जिला बाराँ (राजस्थान)

शनिवार, 21 अप्रैल 2012

कुबेर की धरती ... ... रामकुमार कृषक


स वर्ष ख्यात कवि कुबेरदत्त को हमारे बीच नहीं रहे। इस आलेख में 'रामकुमार कृषक' उन की कविता का एक संक्षिप्त मूल्यांकन प्रस्तुत करते हैं।




कुबेर की धरती ... 
                                             
               ... रामकुमार कृषक
को भी कवि अपने काव्य-सरोकारों और शिल्प-संरचना से पहचाना जाता है। सरोकार बाहरी हो सकता है। जबकि उन्हें अनुभूतिगम्य बनाने का सम्बन्ध उसकी भीतरी दुनिया से होता है। एक ऐसी दुनिया, जिसमें न जाने कितना कुछ गम्य-अगम्य समाया रहता है। कई बार हमें हमारी जड़ संस्कारबद्धता परेशान करती है तो कई बार इतिहास और वर्तमान के अनाकलित अॅंधेरे। इसलिए प्रत्येक वह रचनाकार जो मानवीय और सामाजिक उत्तरदायित्व के साथ रचना करता है, उसे विकट आत्संघर्ष करना पड़ता है।

कवि कुबेरत्त को हम ऐसे ही आत्मसंघर्ष से गुजरते हुए देखते हैं। उनका रचना-फलक बहुआयामी और बहुस्तरीय है। अंतर्वस्तु और भाषा-शिल्प, दोनों ही दृष्टियों से वे प्रयोगधर्मी हैं। कला, साहित्य, संस्कृति और संगीत - सभी में उनकी आवाजाही है। इन तमाम अनुशासनों का, दूरदर्शन के लिए काम करते हुए तो उन्होंने उपयोग किया ही, अपनी रचनात्मकता को भी समृद्ध किया; और उसका कम हिस्सा ही अभी सामने आया है। आकस्मिक नहीं कि वे सिर्फ कवि की तरह नहीं, एक साहित्यकार की तहर काम करते दिखाई देते हैं। आचार्य किशोरी दास वाजपेयी और डॉ. रामविलास शर्मा पर उनका आलोचना-कर्म इसी बात की पुष्टि करता है।

कविताएँ भी कुबेर की उनके आलोचनात्मक विवेक की ही उपज हैं। पर्यवेक्षण उनके स्वभाव में है, और वे अपने समय के यथार्थ के भीतर तक जाते हैं। उनके कवि को जो सामने, सतह पर घटता हुआ दिखाई देता है, कविता के लिए सिर्फ वही काफी नहीं। आँखें जो देखती हैं, उनका एक आत्म भी है। कहिए कि कवि के आत्मचेतस मन की जो आँखें हैं, कुबेर उन्हें बंद रखकर कहीं से नहीं गुजरते।

धरती ने कहा फिरउनकी लम्बी कविताओं का संग्रह है। यों मैं उक्त शीर्षक कविता पर ही बात करना चाहता हूँ, लेकिन उससे पहले कुबेर के साथ-साथ उस अंधकूपमें भी झाँक लेना चाहता हूँ, जो अपने फंतासीनुमा आच्छादन के बावजूद हू-ब-हू मेरे देश के गोल गुंबद की तरहदिखाई देता है। मुक्तिबोध ने अॅंधेरे मेंलिखकर जो कुछ दिखाया था, इस कविता में उसी का परवर्ती यथार्थ; भले ही उतना संश्लिष्ट न हो, पर है अवश्य। भयावह दृश्यों की रचना करते हैं कुबेर और स्वातंत्र्योत्तर भारत की विडम्बनाओं का उद्घाटन भी -

पूरा अंधकूप / बदल रहा है भभकती सुर्ख गर्माहट में / आँखों के गड्ढों / में अॅंट रही है गर्म राख / चीखने की अंतिम कोशिश भी नाकाम.... और

अब चारों ओर / बहेगा जो यहॉं से शुरू होकर / अगले अनेक दशकों में / आग ही आग / धुआँ ही धुआँ / नर्क ही नर्क....

लेकिनइतिहास की राखऔर इस महादेश की मिट्टीसे कल को जो नया, अधूरा आदमी जन्मेगा, कवि में उसी से पूरा होने का विश्वास भी जीवित है, क्योंकि उसी मिट्टी से जन्मेंगे -

नए और सच्चे स्वप्न / निर्भीक फैसले / और अभियान / जिनमें खेल रहे होंगे / असंख्य बच्चे / वनस्पतियों की तरह।

हरी-भरी, लेकिन संकटग्रस्त वनस्पतियों का नर्तन कुबेर के यहाँ उस हद तक दिखाई देता है, जहाँ तक वे देख सकते हैं, जबकि उनके समकालीनों में यह बड़ी हद तक नदारद है। केरल प्रवासकी कविताएँ तो इसका अकाट्य प्रमाण हैं। उन्हें पढ़ते हुए यह जाना जा सकता है कि अंधकार भरे घोर नैराश्य में सकारात्मक सोच और संघर्ष का जीवनधर्मी उजास क्या होता है। हॅंसी ही नहीं, आँसू भी आँसू का उपचार हो सकते हैं। एक कविता है नेत्रामृतम्। कुछ भी कहने के बजाय पूरी कविता उद्धृत करना चाहता हूँ -

बह रही थी मवाद जब / आँखों से / साँसों में आता-जाता था / लावा विषयुक्त / दिमाग-प्रकोष्ठ जब / बॉयलर के हवाले था / उबल जिसमें रही थीं / सच्चाइयॉं / मिथ / शास्त्र / स्मृतियाँ... / तभी-तभी / प्रिया की आँख से गिरीं दो बूंद / गिरीं ऐन मेरी आँखों में / मेरी आँखों में बैठी / हजारों वर्ष बूढ़ी वृद्ध ने कहा - / नयनामृतम्! नयनामृतम्! / आँखों के जरिए / मस्तिष्क तक जो पहुँचा अमृत / मस्तिष्क में हुआ / धमाका जोरदार / उड़ गए तमाम बॉलयर / और लाक्षागृह!

आँखों से होकर मस्तिष्क तक पहुँची अमृत की धार और फिर उसमें हुए विस्फोट से उड़ जाने वाले तमाम बॉयलर और लाक्षागृह। कुबेर का कवि यहाँ जिस मिथक और यथार्थ से अपने समय को चिन्हित कर रहा है, उसमें प्रेम, करुणा और मेधा, तीनों की उपस्थिति है। अश्रुमय अमृत भी विस्फोटक हो सकता है। जो भी अशुभ और अमानवीय है, उसे जाना ही होगा। यह विश्वास, यह सकारात्मक सोच कुबेर के यहाँ बहुत मुखर है।

पुरुष और प्रकृति का रिश्ता अटूट है। स्त्री स्वयं प्रकृति है। उसका सारा भौतिक-अभौतिक प्रकृतिमय है। लेकिन पुरुष-वर्चस्वी इस विकसित और विकासमान सभ्यता ने दोनों के ही साथ क्या सिर्फ, सिर्फ? खिलवाड़ॉ। सिर्फ दोहन। कुबेर ने अपनी अनेक कविताओं में इसे अनेक तरह से कहा है रोशनी के शहतीर परकविता की कुछ पंक्तियाँ हैं -

नदी को मत बांधो / उसमें नहाते बच्चे डर जाएंगे / हो सके तो / देखो नदी को / उसके किनारे बैठकर देखो / कृतज्ञ होगी नदी।

और कुछ पंक्तियाँ अंतिम शीर्षककविता से -

क्या वह स्त्री है या / वक्त के बंद दरवाजों पर / पछाड़ खाती / कोई आह-कराह?

आकस्मिक नहीं कि धरती ने कहा फिरकविता की शुरुआत कुबेर दत्त स्त्री के प्रेमिल-वत्सल व्यक्तित्व के साथ करते हैं -

शुरू-शुरू की सदियों में / खूब हुआ यह, खूब हुआ / तुमने मेरे माथे के चुम्बन लिए बार-बार / मेरी केश-राशि में क्रीड़ाएँ कीं / हुए लोटपोट मेरी गोद में / वक्षों पर / कंधों पर / पीठ पर / जॉंघों पर / मेरी देह में की कूद-फांद / खूब-खूब लीलाएँ कीं / रंगा मेरे गालों को फूलों के रंगों से / कानों में सुनाए अनगिनत प्रेमराग / होठों पर रचे अनुपम प्रेमग्रंथ / रहे मुझमें पैबस्त पहरों-पहर / साल-दर-साल सदियों तक.... / रही में हरी-भरी, सदानीरा...

कविता इसी तरह शांत, मंथर गति से, किसी कथा-कहानी की तरह आगे बढ़ती है। कहीं कोई फंतासी या अमूर्तन नहीं। रूपक है सहज सम्प्रेषणीय। या किसी कालयात्री की तरह गतिशील। अपने ही विकास-इतिहास से गुजरती हुई धरती। कल क्या थी, आज क्या है। क्या से क्या बना दिया मेरी ही संतति ने मुझे। और वह अपने मनुष्य होने पर गर्व भी करता है!

इसी तरह का सुदीर्घ रूपक कुबेर ने एक और कविता में रचा था – ‘एशिया के नाम खतमें, जो इस संग्रह में नहीं है; हालांकि वर्षों पहले वह अलाव’ (अंक-8, मार्च-2000) में छपी थी। पूरी कविता एक कवि या व्यक्ति का एशिया से संवाद है, जहाँ उसकी प्रकृति-प्रदत्त संपदा की नव-साम्राज्यवादी लूट को प्रश्नांकित किया गया है -

पीले
, काले लबादों में छुपकर / सफेद, नीले, हरे, भगवे / धर्म-प्रचारकों के फरसों, त्रिशूलों / गंडासों को लहराते हुजूम के साथ / कब तक आते रहेंगे रहज़न / और सैनिक / तुम्हारी मासूम बस्तियों में? / कब तक बूढ़े आसमान पर जमता रहेगा / तेरे मासूम बच्चों का अवसाद? / आई.एम.एफ., डब्ल्यू.टी.ओ., विश्व बैंक / और संयुक्त राष्ट्रसंघ की गिरफ्त में / कब तक रहेंगे तेरे त्यौहार / ओणम, ईद, गुलाब, चम्पा, मोगरा, कैक्टस तक / नदी-नद, समुद्र, पंछी, हवाएँ, पहाड़, गुफाएँ / कब तक? / कब तक रहेंगे कैद में किसी पेंटागन / और किसी खाकी, खुफिया योजनाओं के गुप्त केन्द्र में?

लेकिन धरती के स्वर में आक्रोश नहीं, अवसाद है। उसके पर्यावरण में आज विनाशकारी बदलाव हो रहे हैं। दुनिया के लिए प्रकृति की यह सर्वाधिक गम्भीर चेतावनी है। राष्ट्रसंघ के झंडे तले दुनिया-भर के देश उसे सुन भले रहे हैं, कान नहीं दे रहे। सभी को अपने-अपने ऐशो-आराम की चिन्ता है, धरती और उसके बहुवर्णी जीवन-संरक्षण की नहीं। चिंताएँ रियोदेजे-नेरिया (ब्राजील), क्योटो (जापान) और कानकुन (मैक्सिको) से लेकर डरबन (दक्षिण अफ्रीका) तक पसरी हुई हैं, लेकिन औद्योगिक और आणविक विकास के सर्वग्रासी परिणामों की बराबर अनदेखी हो रही है। कुबेर की धरती हैरान-परेशान है, मनुष्य के पतन को लेकर। वह उसकी अति प्राचीन शांत आँखों मेंउफनतेरक्तिम महानदऔर उॅंगलियों में उग आए बघनखेदेख रही है। देख रही हैऋतुचक्रोंको रतिचक्रोंमें बदलते और डूबते हुए मदिरा के कुंडों में। यही नहीं, धरित्री या कविता के दृष्टि-दायरे में यह सब भी है -

तुम्हारी आँखों में उबलते गए / विषैले रसायनों के कड़ाह... / तुमने किए एक साथ हजारों अट्टहास / चबाईं वनस्पतियॉं / भॅंभोड़े वृक्ष, फल, खाद्यान्न.... हाड़-मांस / चूस रक्त / फेंक दिया फोक / रौंद दिए बागान, रौंद दिया समूचा पराग / कीच, काई, मल से सान लिया - / अपनी आत्मा का हर प्रकाश बिन्दु....

लेकिन अपने ही आत्महीन अॅंधेरों में पड़े लोगों को अपनी पतनशीलता कहाँ दिखती है। उसके भयावह परिणाम भी उसका रास्ता नहीं बदल पाते, जब तक कि सृष्टि का प्रत्येक परमाणु आग की आकाशगंगाओंऔर अग्नि-ब्रह्माण्डोंमें नहीं बदल जाता।

स्मरणीय है कि हमारी धरती ने पहले भी महायुद्धों की विभीषिकाएँ झेली हैं। बीसवीं सदी में दो-दो विश्वयुद्धों के साक्षी हम स्वयं हैं। छोटे-छोटे महायुद्ध तो खैर हमारे बाहर-भीतर लगातार चलते ही रहते हैं। यहाँ तक कि हमारे रक्ताणुओं में भी।

कुबेरदत्त युद्ध की, विनाश की, और सर्वोपरि किसी भी तरह के शोषण की व्यवस्था से क्षुब्ध हैं। इसी ने हमारी धरती और उसकी उर्वरता को बंजर बनाया है, और खेत-खलिहानों से लेकर नदियों-वनस्पतियों तक को उजाड़ा। रूप बदल-बदलकर इन व्यवस्थाओं ने धरती और धरती-पुत्रों को छला है। कुबेर अपनी अनेक कविताओं में अनेक तरह से इसे कहतें हैं। एशिया के नाम खतसे ही कुछ और पंक्तियाँ -

गर्भ में हैं जो बच्चे आज / वे तक हैं कर्ज़दार / उनकी माँओं का दूध / साइफन के ज़रिए / सूँत लेती हैं दलाल सरकारें / बदले में मिलती है / शब्दों की फॅंगस लगी खाई सिर्फ....

आज एक नई व्यवस्था हमारे सामने हैं - कुछ और जटिल, कुछ और व्रूळर। इसे हम वैश्वीकरण या भूमंडलीकरण के नाम से जानते हैं। उदारीकरण, बाजारीकरण, उपभोक्तावाद आदि इसके अन्य नाम हैं। इस व्यवस्था में विश्व बैंक द्वारा नियंत्रित पूंजी भी आवारा पूंजी कहलाती है। विकासशील देशों पर आर्थिक गुलामी थोपना और बाजारों के सहारे उनका नागरिक-दोहन करना इसका पहला उद्देश्य है। कुबेरदत्त आर्थिक साम्राज्यवाद की इस समूची प्रक्रिया को भली प्रकार समझते हैं और उसके अमानवीय परिणामों के रेशे-रेशे को खोलते हैं। धरती के ही शब्दों में -

बदले रूप, नाम, चोले, मुद्राएँ, मुखौटे / हुए महाद्वीप, द्वीप, देश, देशांतर / प्रांतर / किले, फौज, स्वर्णमीनार / शाही खजाने / कहीं हुए राष्ट्राध्यक्ष, कहीं शाह, कहीं सम्राट / कहीं तानाशाह, कहीं संसद, रिश्वत, सिक्के, रूक्के / उतरे कहीं बहुराष्ट्रीय पूंजी-संजाल / और.... और अखिल विश्वीय पिंडारी गिरोह / दिक्कालों पर करते बलाघात / सूँतते हवा-पानी-आसमान-आग-अंतरिक्ष.... / अंततः भूल ही गए पूरी तरह / कि मैं हूँ तुम्हारी जमीन... अंततः धात्री!

यहॉं इतिहास भी है और इतिहास का भूगोल भी। पर्यवेक्षण ही नहीं, रुदन और उलाहना भी है। मातृ हृदय का दुख, क्षोभ और चीत्कार तो पूरी कविता में बार-बार सुनाई पड़ता है। लेकिन मनुष्य जाति के लिए अंततः एक चेतावनी भी सुनाई पड़ती है। विश्ववधूबनना धरती को स्वीकार नहीं। इतिहास गवाह है, नारी को नगरवधू बनाने वाले तमाम साम्राज्य भाप बन उड़ गए। ऐसे में उसे विश्ववधू बनाने का सपना देखने वालों का क्या होगा, वे भले ही न जानते हों, कवि और धरती दोनों जानते हैं -

तुम भी मिट्टी में मिल जाओगे

मैं तो फिर से हो जाउँगी


हरी-भरी
, सदानीरा....

बुधवार, 18 अप्रैल 2012

राजा महाराजाओं का डोला

 'श्रद्धांजलि'
भूपेन हजारिका हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन उन का संगीत और गायन हमारे बीच सदैव बना रहेगा। सही मायने में जो लीक से हट कर संगीत है उसमें भूपेन हजारिका का संगीत शामिल है। भूपेन हजारिका की आवाज में बुलंदी के साथ साथ एक विशिष्ट गूँज शामिल है जो श्रोता को चकित करती है। यह गीत प्रसिद्ध गीतकार पं. नरेन्द्र शर्मा का है लेकिन उसे स्वर मिला भूपेन दा का।
... दीपक, सीवान, बिहार

हे डोला हे डोला


हे डोला हे डोला, हे डोला, हे डोला
हे आघे बाघे रास्तों से
कान्धे लिये जाते हैं राजा महाराजाओं का डोला,
हे डोला, हे डोला, हे डोला
हे देहा जलाइके, पसीना बहाइके दौघते हैं डोला
हे डोला, हे डोला, हे डोला


हे हैय्या ना हैय्या ना हैय्या ना हैय्या
हे हैय्या ना हैय्या ना हैय्या ना हैय्या
पालकी से लहराता, गालों को सहलाता
रेशम का हल्का पीला सा
किरणों की झिलमिल में
बरमा के मखमल में
आसन विराजा हो राजा
कैसन गुजरा एक साल गुजरा
देखा नहीं तन पे धागा
नंगे हैं पाँव पर धूप और छांव पर
दौघते हैं डोला, हे डोला हे डोला हे डोला


सदियों से घूमते हैं पालकी हिलोड़े पे है
देह मेरा गिरा ओ गिरा ओ गिरा
जागो जागो देखो कभी मोरे धन वाले राजा
कौड़ियों के दाम कोई मारा हे मारा
चोटियाँ पहाड़ की, सामने हैं अपने
पाँव मिला लो कहारों...
कान्धे से जो फिसला नीचे जा गिरेगा
राजाओं का आसन न्यारा
नीचे जो गिरेगा डोला
हे राजा महाराजाओं का डोला
हे डोला हे डोला हे डोला हे डोला......

रविवार, 15 अप्रैल 2012

साथी शफीक ‘बनारसी’ को क्रान्तिकारी नमन!

"श्रद्धाञ्जलि"

साथी शफीक ‘बनारसी’ को क्रान्तिकारी नमन!
  • अनुभव दास शास्त्री
शफीक बनारसी

हिन्दी-भाषाभाषी क्षेत्र में साम्यवादी आंदोलन के साथ-साथ जनवादी साहित्यिक-सांस्कृतिक आंदोलन में जीवन पर्यन्त अग्रणी भूमिका निभाने वाले साथी शफीक बनारसी का 26 जुलाई, 2011 को 70 वर्ष की आयु में बीमारी के चलते निधन हो गया। साथी यादवचन्द्र एवं शिवराम के निधन के बाद ‘विकल्प’ अखिल भारतीय जनवादी सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा ने अपने एक और अग्रणी, प्रिय व सक्रिय साथी को खो दिया है। अपना पूरा जीवन बेहद सादगी से बिताने वाले, लेकिन उतनी ही कर्मठता और जनवादी जीवन मूल्यों व सिद्धांतों के प्रति गहरी प्रतिबद्धता रखने वाले रचनाकर्मियों में उनके जैसा व्यक्तित्व ढूँढना दुर्लभ होता जा रहा है। प्रसिद्ध कथाकार इसराइल के बाद बमुश्किल कुछ ही रचनाकार होंगे जो सर्वहारा-वर्ग में जन्मे तथा जिन्हें कभी भी अभिजनवादी जीवन-पद्धति और प्रलोभनों ने अपनी ओर आकर्षित नहीं किया। अपनी कठिनाइयों से भरी सर्वहारा-जिन्दगी पर उन्होंने हमेशा नाज किया। अभावों के बीच भी वे जिस स्वाभिमान और कद्दावर अंदाज से जिये, उन्होंने इस बात को सिद्ध किया कि मनुष्य अपने विचारों और मानवीय व्यवहार के कारण बड़ा होता है। उन्होंने पूंजीवादी-सामंती समाज में स्थापित मूल्यों को ध्वस्त करने में अपनी भूमिका निभाई। बनारस और आस-पास के अंचल में लेखकों व संस्कृतिकर्मियों के बीच गहरा सम्मान और प्रेम अर्जित किया। सफेद कुर्ता-धोती और मुंह में पान दबाये हुए उनकी सॉंवली-छवि और महीन-मुस्कान में बनारसी-संस्कृति का ठाठ तो झलकता ही था, सर्वहारा-संस्कृति की अजेय-दृढ़ता भी प्रकट होती थी।

वे ‘विकल्प’ अ.भा. जनवादी सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य थे। बनारस के वामपंथी आंदोलन की अगली कतार के मजदूर नेता होने के साथ-साथ वे मशहूर अवामी शायर भी थे। साहित्य और संस्कृति की दुनिया में उन्हें शफीक बनारसी नाम से जाना जाता था।

साथी शफीक बनारसी के निधन का समाचार सुनते ही उनकी बेमिसाल शख्सियत को आखिरी विदाई देने के लिए बनारस नगर के बुद्धिजीवी, साहित्य संस्कृतिकर्मी और विभिन्न जनपदों से आये ‘विकल्प’ के पदाधिकारी एकत्रित हुए। इनमें रामेश्वर, वाचस्पति, आनन्द तिवारी, जवाहर कौल, मूलचन्द सोनकर, अल कबीर, अशोक आनन्द, अनुभव दास शास्त्री आदि प्रमुख थे। हिन्दी-उर्दू के सभी प्रमुख समाचार पत्रों ने उनके निधन का समाचार विशेष-रूप से प्रकाशित किया। 7 अगस्त को उनकी स्मृति में बनारस में एक श्रद्धांजलि-सभा का आयोजन ‘विकल्प’ ज.सां.सा.मोर्चा, अदबी-संगम, प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ द्वारा संयुक्त रूप से औसानगंज स्थित बाल भारतीय हा.से. स्कूल के सभागार में किया गया। श्रद्धांजलि सभा में विशेष रूप से डॉ. नसीमा निशात, कवि परमानन्द, का. मेहंदी बख्त, डॉ. एम.पी. सिंह, डॉ. संजय श्रीवास्तव, जवाहरलाल कौल व्यग्र, डॉ. देव, कॉ. विजय नारायन, का. वृळष्ण शंकर सिंह रघुवंशी, का. मोबीन, का. शौकत हबीब, का. रामसिंहासन चौहान, का. महेश साहनी, डॉ. अफजल सिद्दीकी, प्रो. दीपक मलिक आदि ने भावभीनी श्रद्धांजली दी।

‘‘जुआ उतार फेंको, जंजीर तोड़ डालो। आगे कदम बढ़ाओ, मंजिल बुला रही है।’’ जैसे शेर लिखने वाले अजीम शायर शफीक बनारसी को उपस्थित लेखकों ने मजलूमों और आम आदमी की आवाज बताया। 1970 के दशक में हुए राष्ट्रव्यापी रेल-आंदोलन को सफल बनाने में उनकी बड़ी भूमिका थी। उन्होंने अपना पूरा जीवन किसानों, मजदूरों, शोषितों व उपेक्षितों के हको-हकूक के लिए बिताया और इसके लिए वे अंतिम सांस तक चिंतित रहे। वे बुनकरों, दस्तकारों और किसानों की आत्म-हत्याओं से खासे चिंतित थे। बनारस में हुए लगभग सभी जन-आंदोलनों में उनकी अग्रणी भूमिका थी। मार्क्सवादी विचारों के लिए समर्पित शफीक साहब ने साम्यवादी आदर्शों और मजदूर-वर्ग के लाल परचम को उँचाइयाँ बख्शीं। इंसानियत के गौरव को बढ़ाया। वे हिन्दी-उर्दू समन्वय और साहित्य संस्कृति की जनपक्षधरता के हामी थे। 12 अक्टूबर 1941 को बनारस के एक मशहूर मोहल्ले पियरीकलाँ में जन्मे शफीक अहमद जब मात्र 9 वर्ष के थे तभी उनके पिता माजिद मुंशी अब्दुर्रशीद साहब का इंतकाल हो गया। उसके बाद वे बम्बई चले गये। बम्बई में वे अक्सरो-बेश्तर कम्युनिस्ट पार्टी के जलसों में शिरकत किया करते थे। वहॉं कैफी आजमी और अन्य प्रमुख शायरों से उनकी मुलाकात हुई और लेखन प्रारम्भ हो गया।

नारस लौटने के बाद कम्युनिस्ट आंदोलन में उनकी सक्रियता बढ़ गई। उन्होंने पहले अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी में फिर माकपा और श्रमिक संगठन ‘सीटू’ में पूरे जोशो-खरोश से काम किया। बाद में एम.सी.पी.आई. के गठन में सुप्रसिद्ध श्रमिक नेता का. सत्यनारायण तिवारी के साथ मिलकर अग्रणी भूमिका निभाई। वे कम्युनिस्ट आंदोलन में आये भटकावों व वर्ग-सहयोगवादी नीतियों के विरुद्ध संघर्ष करते रहे। बनारस अंचल में एम.सी.पी.आई. (यू.) के झन्डे तले एकता और संघर्ष की नीतियों को आगे बढ़ाते रहे।

‘विकल्प’ जनवादी सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा के जरिये उन्होंने अपने विचारों तथा शाइरी को जनता की ताकत बनाया तथा लेखकों, शायरों और संस्कृतिकर्मियों के बीच साम्राज्यवाद एवं साम्प्रदायिकता विरोधी वातावरण तैयार करने का ऐतिहासिक दायित्व निभाया। उन्होंने वैश्वीकरण व उदारतावाद के नाम पर पतनशील-संस्कृति से मोर्चा लगाया तथा बनारस में ‘विकल्प’ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की 2009 में आयोजित बैठक, आतंकवाद-विरोधी सम्मेलन, मई-दिवस आदि आयोजनों के माध्यम से वामपंथी-जनवादी लेखकों व संस्कृतिकर्मियों की एकता बनाने का काम किया।

नके तीन रचना-संग्रह ‘रेत का दरिया’, ‘पांव के छाले’ और ‘नया सफर’ प्रकाशित हो चुके थे तथा चौथा-संग्रह प्रकाशित होने वाला था। जीवन के अंतिम दिनों में भी उनकी सक्रियता बराबर बनी रही। बीमारी की हालत में भी वे फैज अहमद फैज और मजाज लखनवी के शताब्दी-समारोह की तैयारी में जुटे हुए थे। 21 अगस्त को ‘अदबी संगम’ द्वारा उन्हें रामदास अकेला सम्मान से नवाजा जाना था। लेकिन उससे पहले ही वे अपने क्रांतिकारी विचारों की विरासत छोड़कर हमारे बीच से चले गये। हमें इस बात का फख्र है कि हम इस समय के एक असाधारण इंसान के साथ जिये और जनवाद के कारवाँ को आगे बढ़ाने में उनके सहयोगी रहे। आने वाली पीढ़ियाँ निश्चित ही उनका मूल्यांकन करेंगी।

उन्हें हमारा क्रांतिकारी नमन!