रविवार, 15 अप्रैल 2012

साथी शफीक ‘बनारसी’ को क्रान्तिकारी नमन!

"श्रद्धाञ्जलि"

साथी शफीक ‘बनारसी’ को क्रान्तिकारी नमन!
  • अनुभव दास शास्त्री
शफीक बनारसी

हिन्दी-भाषाभाषी क्षेत्र में साम्यवादी आंदोलन के साथ-साथ जनवादी साहित्यिक-सांस्कृतिक आंदोलन में जीवन पर्यन्त अग्रणी भूमिका निभाने वाले साथी शफीक बनारसी का 26 जुलाई, 2011 को 70 वर्ष की आयु में बीमारी के चलते निधन हो गया। साथी यादवचन्द्र एवं शिवराम के निधन के बाद ‘विकल्प’ अखिल भारतीय जनवादी सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा ने अपने एक और अग्रणी, प्रिय व सक्रिय साथी को खो दिया है। अपना पूरा जीवन बेहद सादगी से बिताने वाले, लेकिन उतनी ही कर्मठता और जनवादी जीवन मूल्यों व सिद्धांतों के प्रति गहरी प्रतिबद्धता रखने वाले रचनाकर्मियों में उनके जैसा व्यक्तित्व ढूँढना दुर्लभ होता जा रहा है। प्रसिद्ध कथाकार इसराइल के बाद बमुश्किल कुछ ही रचनाकार होंगे जो सर्वहारा-वर्ग में जन्मे तथा जिन्हें कभी भी अभिजनवादी जीवन-पद्धति और प्रलोभनों ने अपनी ओर आकर्षित नहीं किया। अपनी कठिनाइयों से भरी सर्वहारा-जिन्दगी पर उन्होंने हमेशा नाज किया। अभावों के बीच भी वे जिस स्वाभिमान और कद्दावर अंदाज से जिये, उन्होंने इस बात को सिद्ध किया कि मनुष्य अपने विचारों और मानवीय व्यवहार के कारण बड़ा होता है। उन्होंने पूंजीवादी-सामंती समाज में स्थापित मूल्यों को ध्वस्त करने में अपनी भूमिका निभाई। बनारस और आस-पास के अंचल में लेखकों व संस्कृतिकर्मियों के बीच गहरा सम्मान और प्रेम अर्जित किया। सफेद कुर्ता-धोती और मुंह में पान दबाये हुए उनकी सॉंवली-छवि और महीन-मुस्कान में बनारसी-संस्कृति का ठाठ तो झलकता ही था, सर्वहारा-संस्कृति की अजेय-दृढ़ता भी प्रकट होती थी।

वे ‘विकल्प’ अ.भा. जनवादी सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य थे। बनारस के वामपंथी आंदोलन की अगली कतार के मजदूर नेता होने के साथ-साथ वे मशहूर अवामी शायर भी थे। साहित्य और संस्कृति की दुनिया में उन्हें शफीक बनारसी नाम से जाना जाता था।

साथी शफीक बनारसी के निधन का समाचार सुनते ही उनकी बेमिसाल शख्सियत को आखिरी विदाई देने के लिए बनारस नगर के बुद्धिजीवी, साहित्य संस्कृतिकर्मी और विभिन्न जनपदों से आये ‘विकल्प’ के पदाधिकारी एकत्रित हुए। इनमें रामेश्वर, वाचस्पति, आनन्द तिवारी, जवाहर कौल, मूलचन्द सोनकर, अल कबीर, अशोक आनन्द, अनुभव दास शास्त्री आदि प्रमुख थे। हिन्दी-उर्दू के सभी प्रमुख समाचार पत्रों ने उनके निधन का समाचार विशेष-रूप से प्रकाशित किया। 7 अगस्त को उनकी स्मृति में बनारस में एक श्रद्धांजलि-सभा का आयोजन ‘विकल्प’ ज.सां.सा.मोर्चा, अदबी-संगम, प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ द्वारा संयुक्त रूप से औसानगंज स्थित बाल भारतीय हा.से. स्कूल के सभागार में किया गया। श्रद्धांजलि सभा में विशेष रूप से डॉ. नसीमा निशात, कवि परमानन्द, का. मेहंदी बख्त, डॉ. एम.पी. सिंह, डॉ. संजय श्रीवास्तव, जवाहरलाल कौल व्यग्र, डॉ. देव, कॉ. विजय नारायन, का. वृळष्ण शंकर सिंह रघुवंशी, का. मोबीन, का. शौकत हबीब, का. रामसिंहासन चौहान, का. महेश साहनी, डॉ. अफजल सिद्दीकी, प्रो. दीपक मलिक आदि ने भावभीनी श्रद्धांजली दी।

‘‘जुआ उतार फेंको, जंजीर तोड़ डालो। आगे कदम बढ़ाओ, मंजिल बुला रही है।’’ जैसे शेर लिखने वाले अजीम शायर शफीक बनारसी को उपस्थित लेखकों ने मजलूमों और आम आदमी की आवाज बताया। 1970 के दशक में हुए राष्ट्रव्यापी रेल-आंदोलन को सफल बनाने में उनकी बड़ी भूमिका थी। उन्होंने अपना पूरा जीवन किसानों, मजदूरों, शोषितों व उपेक्षितों के हको-हकूक के लिए बिताया और इसके लिए वे अंतिम सांस तक चिंतित रहे। वे बुनकरों, दस्तकारों और किसानों की आत्म-हत्याओं से खासे चिंतित थे। बनारस में हुए लगभग सभी जन-आंदोलनों में उनकी अग्रणी भूमिका थी। मार्क्सवादी विचारों के लिए समर्पित शफीक साहब ने साम्यवादी आदर्शों और मजदूर-वर्ग के लाल परचम को उँचाइयाँ बख्शीं। इंसानियत के गौरव को बढ़ाया। वे हिन्दी-उर्दू समन्वय और साहित्य संस्कृति की जनपक्षधरता के हामी थे। 12 अक्टूबर 1941 को बनारस के एक मशहूर मोहल्ले पियरीकलाँ में जन्मे शफीक अहमद जब मात्र 9 वर्ष के थे तभी उनके पिता माजिद मुंशी अब्दुर्रशीद साहब का इंतकाल हो गया। उसके बाद वे बम्बई चले गये। बम्बई में वे अक्सरो-बेश्तर कम्युनिस्ट पार्टी के जलसों में शिरकत किया करते थे। वहॉं कैफी आजमी और अन्य प्रमुख शायरों से उनकी मुलाकात हुई और लेखन प्रारम्भ हो गया।

नारस लौटने के बाद कम्युनिस्ट आंदोलन में उनकी सक्रियता बढ़ गई। उन्होंने पहले अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी में फिर माकपा और श्रमिक संगठन ‘सीटू’ में पूरे जोशो-खरोश से काम किया। बाद में एम.सी.पी.आई. के गठन में सुप्रसिद्ध श्रमिक नेता का. सत्यनारायण तिवारी के साथ मिलकर अग्रणी भूमिका निभाई। वे कम्युनिस्ट आंदोलन में आये भटकावों व वर्ग-सहयोगवादी नीतियों के विरुद्ध संघर्ष करते रहे। बनारस अंचल में एम.सी.पी.आई. (यू.) के झन्डे तले एकता और संघर्ष की नीतियों को आगे बढ़ाते रहे।

‘विकल्प’ जनवादी सांस्कृतिक सामाजिक मोर्चा के जरिये उन्होंने अपने विचारों तथा शाइरी को जनता की ताकत बनाया तथा लेखकों, शायरों और संस्कृतिकर्मियों के बीच साम्राज्यवाद एवं साम्प्रदायिकता विरोधी वातावरण तैयार करने का ऐतिहासिक दायित्व निभाया। उन्होंने वैश्वीकरण व उदारतावाद के नाम पर पतनशील-संस्कृति से मोर्चा लगाया तथा बनारस में ‘विकल्प’ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की 2009 में आयोजित बैठक, आतंकवाद-विरोधी सम्मेलन, मई-दिवस आदि आयोजनों के माध्यम से वामपंथी-जनवादी लेखकों व संस्कृतिकर्मियों की एकता बनाने का काम किया।

नके तीन रचना-संग्रह ‘रेत का दरिया’, ‘पांव के छाले’ और ‘नया सफर’ प्रकाशित हो चुके थे तथा चौथा-संग्रह प्रकाशित होने वाला था। जीवन के अंतिम दिनों में भी उनकी सक्रियता बराबर बनी रही। बीमारी की हालत में भी वे फैज अहमद फैज और मजाज लखनवी के शताब्दी-समारोह की तैयारी में जुटे हुए थे। 21 अगस्त को ‘अदबी संगम’ द्वारा उन्हें रामदास अकेला सम्मान से नवाजा जाना था। लेकिन उससे पहले ही वे अपने क्रांतिकारी विचारों की विरासत छोड़कर हमारे बीच से चले गये। हमें इस बात का फख्र है कि हम इस समय के एक असाधारण इंसान के साथ जिये और जनवाद के कारवाँ को आगे बढ़ाने में उनके सहयोगी रहे। आने वाली पीढ़ियाँ निश्चित ही उनका मूल्यांकन करेंगी।

उन्हें हमारा क्रांतिकारी नमन!

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