अभिव्यक्ति
सामाजिक यथार्थवादी साहित्य की पत्रिका
सोमवार, 2 अप्रैल 2012
मुखपृष्ठ 38वाँ अंक
बेईमान सजे बजे हैं,
तो क्या हम मान लें कि
बेईमानी भी एक सजावट है?
कातिल मजे में है
तो क्या हम मान लें कि
क़त्ल एक मजेदार काम है?
मसला मनुष्य का है
इसलिए हम को हरगिज न मानेंगे
कि मसले जाने के लिए ही बचा है मनुष्य !!
-वीरेन डंगवाल
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