सामाजिक यथार्थवादी साहित्य
की पत्रिका अभिव्यक्ति के मार्च, 2012 में प्रकाशित 38वें अंक से इस पोस्ट में प्रस्तुत है शिवदत्त चतुर्वेदी का एक ब्रज गीत ..
बावरिया
-शिवदत्त चतुर्वेदी
खर्चा कम कर मॅंहगौ है गयौ तेल बावरिया!
जैसे भी होय यै जिन्दगी ढकेल बावरिया!!
द्वारे खडे़ रिफायनरी सौं तेल निकसै भारी
बूंद-बूंद इत तेल कौं तरसै लालू की महतारी
बने बनाये बिगिरे सिगरे खेल बावरिया!
लकड़ी काटैं तौ बन-विभाग के दौड़े-दौड़े आमैं
धमकामें और मार लगामें थाने कौं ले जामैं
नंगौ - झारौ लै भिजवामें जेल बावरिया!
पटरी पै कौला बीनै तौ इंजन कौ डर ज्यादा
रेल-पुलिस कौ आय सिपहिया हर दम डारै बाधा
कम दीखै कहूँ चढ़ ना जावै रेल बावरिया!
कन्डन के बिटौरा ताईं ठौर नाय रखिबे कौं
और पड़ौसिन आय नपूती बेर-बेर लड़िबे कौं
बैरी भयौ प्रधान न जासौं मेल बावरिया!
खेती कौं चौपट कर देगी डीजल की महंगाई
सिगरे भाड़े महंगे होंइगे जनता कौं दुखदाई
इक्कीसवीं सदी के सपने झेल बावरिया!
-शिवदत्त चतुर्वेदी, बंगाली घाट, मथुरा
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