गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

अदम गोंडवी की कविता 'चमारों की गली'


(अदम गोंडवी भी नहीं रहे। साहित्यिक प्रतिष्ठानों और प्रतिष्ठित साहित्यिकों की उपेक्षा और अवमानना को दरकिनार करते हुए सिर्फ मजलूम और साहिबे किरदार के सामने सर झुकाने वाले, अदम्य वैचारिक और जनपक्षीय प्रतिबद्धता से ओत-प्रोत अदम गोंडवी एक असाधारण रूप से साधारण इंसान थे। वे आमजन के कवि थे और उन्हीं के साथ सड़क के आदमी। बुझे चूल्हों से संवाद करती, संसद का फरेब जानती, विकास के आंकड़ों की हकीकत से गुजरकर चमारों की गली में ले जाती अदम की ग़ज़लें मजलूमों और मुफलिसों की पीड़ा, उसके जख्मों और आक्रोश का जिंदा दस्तावेज हैं। राजनैतिक ग़ज़लों की दुष्यंती परंपरा को वे एक नये मुकाम तक ले गए, उनकी शायरी में घुला तेज़ाब समूची व्यवस्था में खदबदाहट मचा देता है। होशोहवाश में बगावत का रास्ता दिखाने वाले अदम गोंडवी क्रांति की निरंतरता में यक़ीन करते थे और नई पीढियों की समझ और उनमें बदलाव की ललक तथा क्रांतिकारी उमंगों के प्रति काफी आशावादी थे। उनके क्रांतिकारी, जनपक्षीय सरोकारों और एक न्यायपूर्ण समाज के सपने को साकार करने की उनकी अदम्य ललक और प्रतिबद्धता को सलाम करते हुए हम यहां उनकी बहुचर्चित नज़्म ‘चमारों की गली’ प्रस्तुत कर रहे हैं। - रवि कुमार, रावतभाटा)

चमारों की गली 

  • अदम गोंडवी


आइए महसूस करिए जिंदगी के ताप को

मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर


मर गयी फुलिया बिचारी इक कुएं में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी


आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा

मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा


कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबरायी हुई

लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलायी हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है

जानते हो इसकी खामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को

सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाये खाट को

डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से

घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोयी हुई जज्बात में


क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

होनी से बेखबर कृष्ना बेखबर राहों में थी

मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी

चीख निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गयी

छटपटायी पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गयी

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया

वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हंस रही थी मौज में

होश में आयी तो कृष्ना थी पिता की गोद में

जुड़ गयी थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था

जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है

पूछ तो बेटी से आखिर वो दरिंदा कौन है

कोई हो संघर्ष से हम पांव मोड़ेंगे नहीं

कच्चा खा जाएंगे जिंदा उनको छोड़ेंगे नहीं


कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें

और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुंह काला करें

बोला कृष्ना से बहन, सो जा मेरे अनुरोध से

बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गयी इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में

वे इकट्ठे हो गये सरपंच के दालान में

दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लंबी नोक पर

देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर

क्या कहें सरपंच भाई! क्या जमाना आ गया

कल तलक जो पांव के नीचे था रुतबा पा गया

कहती है सरकार कि आपस में मिलजुल कर रहो

सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहां

पड़ गया है सीप का मोती गंवारों के यहां


जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है

हाथ पुट्ठे पे न रखने देती है, मगरूर है

भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ

फिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ

आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गयी

जाने-अनजाने वो लज्जत जिंदगी की पा गयी

वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गयी

वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है

हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की

गांव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी

बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया

हाथ मूंछों पर गये माहौल भी सन्ना गया


क्षणिक था आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था

हां, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था

रात जो आया न अब तूफान वह पुर जोर था

भोर होते ही वहां का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में

एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में

घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -

‘‘जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आये सामने’’

निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर

एक सिपाही ने तभी लाठी चलायी दौड़ कर

गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया

सुन पड़ा फिर ‘‘माल वो चोरी का तूने क्या किया’’

‘‘कैसी चोरी माल कैसा’’ उसने जैसे ही कहा

एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा


होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर

ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -

‘‘मेरा मुंह क्या देखते हो! इसके मुंह में थूक दो

आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूंक दो’’

और फिर प्रतिशोध की आंधी वहां चलने लगी

बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

दुधमुंहा बच्चा व बुड्ढा जो वहां खेड़े में था

वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था

घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे

कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे

‘‘कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएं नहीं

हुक्म जब तक मैं न दूं कोई कहीं जाए नहीं’’

यह दरोगा जी थे मुंह से शब्द झरते फूल से

आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से


फिर दहाड़े ‘‘इनको डंडों से सुधारा जाएगा

ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा’’

इक सिपाही ने कहा ‘‘साइकिल किधर को मोड़ दें

होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें’’

बोला थानेदार ‘‘मुर्गे की तरह मत बांग दो

होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो

ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है

ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है’’

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल

‘‘कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल’’

उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को

सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को

धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को

प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को


मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आएँ मेरे गांव में

तट पे नदियों की घनी अमराइयों की छांव में

गांव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही

या अहिंसा की जहां पर नथ उतारी जा रही

हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए

बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए! 


 






4 टिप्‍पणियां:

  1. मुझे बहुत पसंद है यह कविता, पुन: पढ़वाने का शुक्रिया !

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  2. मुंशी प्रेमचंद और सू.कां.त्रिपाठी निराला के बाद नागार्जुन जैसी सहज शैली में दलित दर्द को सिर्फ शारीरिक स्तर पर देखने का यह भावनात्मक प्रयास काबिले तारीफ़ है।

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  3. गोडवी जी की ह्रदय स्पर्शी रचना से परिचय करने के लिए साधुवाद

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