शनिवार, 21 अप्रैल 2012

कुबेर की धरती ... ... रामकुमार कृषक


स वर्ष ख्यात कवि कुबेरदत्त को हमारे बीच नहीं रहे। इस आलेख में 'रामकुमार कृषक' उन की कविता का एक संक्षिप्त मूल्यांकन प्रस्तुत करते हैं।




कुबेर की धरती ... 
                                             
               ... रामकुमार कृषक
को भी कवि अपने काव्य-सरोकारों और शिल्प-संरचना से पहचाना जाता है। सरोकार बाहरी हो सकता है। जबकि उन्हें अनुभूतिगम्य बनाने का सम्बन्ध उसकी भीतरी दुनिया से होता है। एक ऐसी दुनिया, जिसमें न जाने कितना कुछ गम्य-अगम्य समाया रहता है। कई बार हमें हमारी जड़ संस्कारबद्धता परेशान करती है तो कई बार इतिहास और वर्तमान के अनाकलित अॅंधेरे। इसलिए प्रत्येक वह रचनाकार जो मानवीय और सामाजिक उत्तरदायित्व के साथ रचना करता है, उसे विकट आत्संघर्ष करना पड़ता है।

कवि कुबेरत्त को हम ऐसे ही आत्मसंघर्ष से गुजरते हुए देखते हैं। उनका रचना-फलक बहुआयामी और बहुस्तरीय है। अंतर्वस्तु और भाषा-शिल्प, दोनों ही दृष्टियों से वे प्रयोगधर्मी हैं। कला, साहित्य, संस्कृति और संगीत - सभी में उनकी आवाजाही है। इन तमाम अनुशासनों का, दूरदर्शन के लिए काम करते हुए तो उन्होंने उपयोग किया ही, अपनी रचनात्मकता को भी समृद्ध किया; और उसका कम हिस्सा ही अभी सामने आया है। आकस्मिक नहीं कि वे सिर्फ कवि की तरह नहीं, एक साहित्यकार की तहर काम करते दिखाई देते हैं। आचार्य किशोरी दास वाजपेयी और डॉ. रामविलास शर्मा पर उनका आलोचना-कर्म इसी बात की पुष्टि करता है।

कविताएँ भी कुबेर की उनके आलोचनात्मक विवेक की ही उपज हैं। पर्यवेक्षण उनके स्वभाव में है, और वे अपने समय के यथार्थ के भीतर तक जाते हैं। उनके कवि को जो सामने, सतह पर घटता हुआ दिखाई देता है, कविता के लिए सिर्फ वही काफी नहीं। आँखें जो देखती हैं, उनका एक आत्म भी है। कहिए कि कवि के आत्मचेतस मन की जो आँखें हैं, कुबेर उन्हें बंद रखकर कहीं से नहीं गुजरते।

धरती ने कहा फिरउनकी लम्बी कविताओं का संग्रह है। यों मैं उक्त शीर्षक कविता पर ही बात करना चाहता हूँ, लेकिन उससे पहले कुबेर के साथ-साथ उस अंधकूपमें भी झाँक लेना चाहता हूँ, जो अपने फंतासीनुमा आच्छादन के बावजूद हू-ब-हू मेरे देश के गोल गुंबद की तरहदिखाई देता है। मुक्तिबोध ने अॅंधेरे मेंलिखकर जो कुछ दिखाया था, इस कविता में उसी का परवर्ती यथार्थ; भले ही उतना संश्लिष्ट न हो, पर है अवश्य। भयावह दृश्यों की रचना करते हैं कुबेर और स्वातंत्र्योत्तर भारत की विडम्बनाओं का उद्घाटन भी -

पूरा अंधकूप / बदल रहा है भभकती सुर्ख गर्माहट में / आँखों के गड्ढों / में अॅंट रही है गर्म राख / चीखने की अंतिम कोशिश भी नाकाम.... और

अब चारों ओर / बहेगा जो यहॉं से शुरू होकर / अगले अनेक दशकों में / आग ही आग / धुआँ ही धुआँ / नर्क ही नर्क....

लेकिनइतिहास की राखऔर इस महादेश की मिट्टीसे कल को जो नया, अधूरा आदमी जन्मेगा, कवि में उसी से पूरा होने का विश्वास भी जीवित है, क्योंकि उसी मिट्टी से जन्मेंगे -

नए और सच्चे स्वप्न / निर्भीक फैसले / और अभियान / जिनमें खेल रहे होंगे / असंख्य बच्चे / वनस्पतियों की तरह।

हरी-भरी, लेकिन संकटग्रस्त वनस्पतियों का नर्तन कुबेर के यहाँ उस हद तक दिखाई देता है, जहाँ तक वे देख सकते हैं, जबकि उनके समकालीनों में यह बड़ी हद तक नदारद है। केरल प्रवासकी कविताएँ तो इसका अकाट्य प्रमाण हैं। उन्हें पढ़ते हुए यह जाना जा सकता है कि अंधकार भरे घोर नैराश्य में सकारात्मक सोच और संघर्ष का जीवनधर्मी उजास क्या होता है। हॅंसी ही नहीं, आँसू भी आँसू का उपचार हो सकते हैं। एक कविता है नेत्रामृतम्। कुछ भी कहने के बजाय पूरी कविता उद्धृत करना चाहता हूँ -

बह रही थी मवाद जब / आँखों से / साँसों में आता-जाता था / लावा विषयुक्त / दिमाग-प्रकोष्ठ जब / बॉयलर के हवाले था / उबल जिसमें रही थीं / सच्चाइयॉं / मिथ / शास्त्र / स्मृतियाँ... / तभी-तभी / प्रिया की आँख से गिरीं दो बूंद / गिरीं ऐन मेरी आँखों में / मेरी आँखों में बैठी / हजारों वर्ष बूढ़ी वृद्ध ने कहा - / नयनामृतम्! नयनामृतम्! / आँखों के जरिए / मस्तिष्क तक जो पहुँचा अमृत / मस्तिष्क में हुआ / धमाका जोरदार / उड़ गए तमाम बॉलयर / और लाक्षागृह!

आँखों से होकर मस्तिष्क तक पहुँची अमृत की धार और फिर उसमें हुए विस्फोट से उड़ जाने वाले तमाम बॉयलर और लाक्षागृह। कुबेर का कवि यहाँ जिस मिथक और यथार्थ से अपने समय को चिन्हित कर रहा है, उसमें प्रेम, करुणा और मेधा, तीनों की उपस्थिति है। अश्रुमय अमृत भी विस्फोटक हो सकता है। जो भी अशुभ और अमानवीय है, उसे जाना ही होगा। यह विश्वास, यह सकारात्मक सोच कुबेर के यहाँ बहुत मुखर है।

पुरुष और प्रकृति का रिश्ता अटूट है। स्त्री स्वयं प्रकृति है। उसका सारा भौतिक-अभौतिक प्रकृतिमय है। लेकिन पुरुष-वर्चस्वी इस विकसित और विकासमान सभ्यता ने दोनों के ही साथ क्या सिर्फ, सिर्फ? खिलवाड़ॉ। सिर्फ दोहन। कुबेर ने अपनी अनेक कविताओं में इसे अनेक तरह से कहा है रोशनी के शहतीर परकविता की कुछ पंक्तियाँ हैं -

नदी को मत बांधो / उसमें नहाते बच्चे डर जाएंगे / हो सके तो / देखो नदी को / उसके किनारे बैठकर देखो / कृतज्ञ होगी नदी।

और कुछ पंक्तियाँ अंतिम शीर्षककविता से -

क्या वह स्त्री है या / वक्त के बंद दरवाजों पर / पछाड़ खाती / कोई आह-कराह?

आकस्मिक नहीं कि धरती ने कहा फिरकविता की शुरुआत कुबेर दत्त स्त्री के प्रेमिल-वत्सल व्यक्तित्व के साथ करते हैं -

शुरू-शुरू की सदियों में / खूब हुआ यह, खूब हुआ / तुमने मेरे माथे के चुम्बन लिए बार-बार / मेरी केश-राशि में क्रीड़ाएँ कीं / हुए लोटपोट मेरी गोद में / वक्षों पर / कंधों पर / पीठ पर / जॉंघों पर / मेरी देह में की कूद-फांद / खूब-खूब लीलाएँ कीं / रंगा मेरे गालों को फूलों के रंगों से / कानों में सुनाए अनगिनत प्रेमराग / होठों पर रचे अनुपम प्रेमग्रंथ / रहे मुझमें पैबस्त पहरों-पहर / साल-दर-साल सदियों तक.... / रही में हरी-भरी, सदानीरा...

कविता इसी तरह शांत, मंथर गति से, किसी कथा-कहानी की तरह आगे बढ़ती है। कहीं कोई फंतासी या अमूर्तन नहीं। रूपक है सहज सम्प्रेषणीय। या किसी कालयात्री की तरह गतिशील। अपने ही विकास-इतिहास से गुजरती हुई धरती। कल क्या थी, आज क्या है। क्या से क्या बना दिया मेरी ही संतति ने मुझे। और वह अपने मनुष्य होने पर गर्व भी करता है!

इसी तरह का सुदीर्घ रूपक कुबेर ने एक और कविता में रचा था – ‘एशिया के नाम खतमें, जो इस संग्रह में नहीं है; हालांकि वर्षों पहले वह अलाव’ (अंक-8, मार्च-2000) में छपी थी। पूरी कविता एक कवि या व्यक्ति का एशिया से संवाद है, जहाँ उसकी प्रकृति-प्रदत्त संपदा की नव-साम्राज्यवादी लूट को प्रश्नांकित किया गया है -

पीले
, काले लबादों में छुपकर / सफेद, नीले, हरे, भगवे / धर्म-प्रचारकों के फरसों, त्रिशूलों / गंडासों को लहराते हुजूम के साथ / कब तक आते रहेंगे रहज़न / और सैनिक / तुम्हारी मासूम बस्तियों में? / कब तक बूढ़े आसमान पर जमता रहेगा / तेरे मासूम बच्चों का अवसाद? / आई.एम.एफ., डब्ल्यू.टी.ओ., विश्व बैंक / और संयुक्त राष्ट्रसंघ की गिरफ्त में / कब तक रहेंगे तेरे त्यौहार / ओणम, ईद, गुलाब, चम्पा, मोगरा, कैक्टस तक / नदी-नद, समुद्र, पंछी, हवाएँ, पहाड़, गुफाएँ / कब तक? / कब तक रहेंगे कैद में किसी पेंटागन / और किसी खाकी, खुफिया योजनाओं के गुप्त केन्द्र में?

लेकिन धरती के स्वर में आक्रोश नहीं, अवसाद है। उसके पर्यावरण में आज विनाशकारी बदलाव हो रहे हैं। दुनिया के लिए प्रकृति की यह सर्वाधिक गम्भीर चेतावनी है। राष्ट्रसंघ के झंडे तले दुनिया-भर के देश उसे सुन भले रहे हैं, कान नहीं दे रहे। सभी को अपने-अपने ऐशो-आराम की चिन्ता है, धरती और उसके बहुवर्णी जीवन-संरक्षण की नहीं। चिंताएँ रियोदेजे-नेरिया (ब्राजील), क्योटो (जापान) और कानकुन (मैक्सिको) से लेकर डरबन (दक्षिण अफ्रीका) तक पसरी हुई हैं, लेकिन औद्योगिक और आणविक विकास के सर्वग्रासी परिणामों की बराबर अनदेखी हो रही है। कुबेर की धरती हैरान-परेशान है, मनुष्य के पतन को लेकर। वह उसकी अति प्राचीन शांत आँखों मेंउफनतेरक्तिम महानदऔर उॅंगलियों में उग आए बघनखेदेख रही है। देख रही हैऋतुचक्रोंको रतिचक्रोंमें बदलते और डूबते हुए मदिरा के कुंडों में। यही नहीं, धरित्री या कविता के दृष्टि-दायरे में यह सब भी है -

तुम्हारी आँखों में उबलते गए / विषैले रसायनों के कड़ाह... / तुमने किए एक साथ हजारों अट्टहास / चबाईं वनस्पतियॉं / भॅंभोड़े वृक्ष, फल, खाद्यान्न.... हाड़-मांस / चूस रक्त / फेंक दिया फोक / रौंद दिए बागान, रौंद दिया समूचा पराग / कीच, काई, मल से सान लिया - / अपनी आत्मा का हर प्रकाश बिन्दु....

लेकिन अपने ही आत्महीन अॅंधेरों में पड़े लोगों को अपनी पतनशीलता कहाँ दिखती है। उसके भयावह परिणाम भी उसका रास्ता नहीं बदल पाते, जब तक कि सृष्टि का प्रत्येक परमाणु आग की आकाशगंगाओंऔर अग्नि-ब्रह्माण्डोंमें नहीं बदल जाता।

स्मरणीय है कि हमारी धरती ने पहले भी महायुद्धों की विभीषिकाएँ झेली हैं। बीसवीं सदी में दो-दो विश्वयुद्धों के साक्षी हम स्वयं हैं। छोटे-छोटे महायुद्ध तो खैर हमारे बाहर-भीतर लगातार चलते ही रहते हैं। यहाँ तक कि हमारे रक्ताणुओं में भी।

कुबेरदत्त युद्ध की, विनाश की, और सर्वोपरि किसी भी तरह के शोषण की व्यवस्था से क्षुब्ध हैं। इसी ने हमारी धरती और उसकी उर्वरता को बंजर बनाया है, और खेत-खलिहानों से लेकर नदियों-वनस्पतियों तक को उजाड़ा। रूप बदल-बदलकर इन व्यवस्थाओं ने धरती और धरती-पुत्रों को छला है। कुबेर अपनी अनेक कविताओं में अनेक तरह से इसे कहतें हैं। एशिया के नाम खतसे ही कुछ और पंक्तियाँ -

गर्भ में हैं जो बच्चे आज / वे तक हैं कर्ज़दार / उनकी माँओं का दूध / साइफन के ज़रिए / सूँत लेती हैं दलाल सरकारें / बदले में मिलती है / शब्दों की फॅंगस लगी खाई सिर्फ....

आज एक नई व्यवस्था हमारे सामने हैं - कुछ और जटिल, कुछ और व्रूळर। इसे हम वैश्वीकरण या भूमंडलीकरण के नाम से जानते हैं। उदारीकरण, बाजारीकरण, उपभोक्तावाद आदि इसके अन्य नाम हैं। इस व्यवस्था में विश्व बैंक द्वारा नियंत्रित पूंजी भी आवारा पूंजी कहलाती है। विकासशील देशों पर आर्थिक गुलामी थोपना और बाजारों के सहारे उनका नागरिक-दोहन करना इसका पहला उद्देश्य है। कुबेरदत्त आर्थिक साम्राज्यवाद की इस समूची प्रक्रिया को भली प्रकार समझते हैं और उसके अमानवीय परिणामों के रेशे-रेशे को खोलते हैं। धरती के ही शब्दों में -

बदले रूप, नाम, चोले, मुद्राएँ, मुखौटे / हुए महाद्वीप, द्वीप, देश, देशांतर / प्रांतर / किले, फौज, स्वर्णमीनार / शाही खजाने / कहीं हुए राष्ट्राध्यक्ष, कहीं शाह, कहीं सम्राट / कहीं तानाशाह, कहीं संसद, रिश्वत, सिक्के, रूक्के / उतरे कहीं बहुराष्ट्रीय पूंजी-संजाल / और.... और अखिल विश्वीय पिंडारी गिरोह / दिक्कालों पर करते बलाघात / सूँतते हवा-पानी-आसमान-आग-अंतरिक्ष.... / अंततः भूल ही गए पूरी तरह / कि मैं हूँ तुम्हारी जमीन... अंततः धात्री!

यहॉं इतिहास भी है और इतिहास का भूगोल भी। पर्यवेक्षण ही नहीं, रुदन और उलाहना भी है। मातृ हृदय का दुख, क्षोभ और चीत्कार तो पूरी कविता में बार-बार सुनाई पड़ता है। लेकिन मनुष्य जाति के लिए अंततः एक चेतावनी भी सुनाई पड़ती है। विश्ववधूबनना धरती को स्वीकार नहीं। इतिहास गवाह है, नारी को नगरवधू बनाने वाले तमाम साम्राज्य भाप बन उड़ गए। ऐसे में उसे विश्ववधू बनाने का सपना देखने वालों का क्या होगा, वे भले ही न जानते हों, कवि और धरती दोनों जानते हैं -

तुम भी मिट्टी में मिल जाओगे

मैं तो फिर से हो जाउँगी


हरी-भरी
, सदानीरा....

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