मशहूर शायर
शह्रयार हाल ही में हमारे बीच से गुजर गये। उन्होंने प्रगतिशील शायरी के
कलात्मक-पक्ष को गहरा किया। फिल्म ‘उमरावजान’ के लिए लिखी गई ग़ज़लों व
नज़्मों से उन्हें विशेष ख्याति मिली। मिर्ज़ा गालिब एवार्ड एवं भारतीय
ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी उन्हें सम्मानित किया गया। अपने करीबी जनवादी लेखक
साथी डॉ. कुँवरपाल सिंह की स्मृति में उनके द्वारा लिखी एक कविता और दो
ग़ज़लें अभिव्यक्ति के 38वें अंक में प्रकाशित की गई हैं, यहाँ उन की एक ग़ज़ल प्रस्तुत है-
ग़ज़ल
तुम्हारे शहर में कुछ भी हुआ नहीं है क्या?
कि तुमने चीख़ों को सचमुच सुना नहीं है क्या?
तमाम ख़ल्के-ख़ुदा इस जगह रूकी क्यों है?
यहाँ से आगे कोई रास्ता नहीं है क्या
लहू-लुहान सभी कर रहे हैं सूरज को
किसी को ख़ौफ़ यहाँ रात का नहीं है क्या?
मैं एक ज़माने से हैरान हूँ कि हाकिमे-शहर
जो हो रहा है उसे देखता नहीं है क्या?
उजाड़ते हैं जो नादाँ इसे उजड़ने दो
कि उजड़ा शहर दोबारा बसा नहीं है क्या?
शहरयार साहब की कमी हमेशा महसूस होती रहेगी | बेहतरीन पेशकश |
जवाब देंहटाएंKala aur shahitya ke beech ki ek majboot kadi ka naam Shaharyaar tha.
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