मशहूर शायर
शहरयार हाल ही में हमारे बीच से गुजर गये। उन्होंने प्रगतिशील शायरी के
कलात्मक-पक्ष को गहरा किया। फिल्म ‘उमरावजान’ के लिए लिखी गई ग़ज़लों व
नज़्मों से उन्हें विशेष ख्याति मिली। मिर्ज़ा गालिब एवार्ड एवं भारतीय
ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी उन्हें सम्मानित किया गया। अपने करीबी जनवादी लेखक
साथी डॉ. कुँवरपाल सिंह की स्मृति में उनके द्वारा लिखी एक कविता और दो
ग़ज़लें अभिव्यक्ति के 38वें अंक में प्रकाशित की गई हैं, यहाँ उन की एक ग़ज़ल प्रस्तुत है-
ग़ज़ल
कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ
कि आज धूप नहीं निकली आफताब के साथ
तो फिर बताओ समन्दर सदा को क्यूँ सुनते
हमारी प्यास का रिश्ता था जब सराब के साथ
बादिल अजीब महक साथ ले के आई है
नसीम रात बसर की किसी गुलाब के साथ
फिजाँ में दूर तलक मरहबा के नारे हैं
गुजरने वाले हैं कुछ लोग यहाँ से ख्वाब के साथ
जमीन तेरी कशिश खींचती रही हम को
गये जरूर थे कुछ दूर महताब के साथ
एक बार फिर ज़बरदस्त पेशकश
जवाब देंहटाएंकटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ
जवाब देंहटाएंकि आज धूप नहीं निकली आफताब के साथ
ek alag andaj ki khoobsurat gazal
क्या बात है ! कमाल की नज्म / कालजयी रचनाएँ ,मरने के बाद भी जीती हैं ..... प्रतिष्ठा अप दोनों को /
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