डॉ. शान्तिलाल भारद्वाज ‘राकेश’ का जन्म 24 जून 1932 को झालावाड़ जिले की खानपुर तहसील के एक ग्राम जोलपा के ब्राह्मण परिवार में हुआ था। डॉ. राकेश ने विषम पारिवारिक परिस्थितियों के होते हुए भी उच्च शिक्षा कोटा, जयपुर, उदयपुर में की। डॉ. राकेश अपने जीवन के विद्यार्थी काल से ही सामाजिक नेतृत्व, राजनैतिक सक्रियता एवं साहित्य-सृजन में उन्मुख थे।
डॉ. राकेश हिन्दी व राजस्थानी में समान रूप से रचना करते थे। डॉ. राकेश ने शोध, समालोचना, उपन्यास, जीवनी, नाटक, कहानी, कविता आदि कई विधाओं और शैलियों में साहित्य रचना की। डॉ. राकेश की एक दर्जन से अधिक हिन्दी, राजस्थानी की पुस्तकें तथा अनूदित पुस्तकें प्रकाशित हैं। डॉ. राकेश, राजस्थान साहित्य अकादमी और राजस्थान भाषा अकादमी से सक्रिय रूप से जुड़े रहे। साथ ही अन्य अनेक साहित्यिक, सांस्कृतिक सामाजिक संस्थाओं में भी अपना मार्गदर्शक योगदान देते रहे। वे ‘मधुमती’ ‘जागती जोत’ के सम्पादक तथा राजस्थानी भाषा साहित्य संस्कृति अकादमी के अध्यक्ष भी रहे।
डॉ. राकेश सदैव अपनी प्रगतिशील प्रवृत्तियों के साथ समकालीन विशेषतः आधुनिक लेखन व युवा लेखकों से सम्पर्कित रहे।
पिछले वर्ष डॉ. राकेश हमारे बीच नहीं रहे। उन के जीवन के आत्मीय प्रसंगों की स्मृतियाँ और साहित्यिक रचनाएँ हमारी धरोहर हैं। वे सदैव आरणीय एवं स्मरणीय रहेंगे। अभिव्यक्ति के 38वें अंक में उन की दो काव्य रचनाएँ प्रकाशित की गई हैं। उन में से उन की एक कविता यहाँ प्रस्तुत है-
'कविता'
मैं चलूंगा
मैं चलूंगा
- डॉ. शान्तिलाल भारद्वाज ‘राकेश’
मैं चलूंगा
क्योंकि चलकर ही पहुँच पाया यहाँ तक
कौन जाने - और चला है कहाँ तक
यात्रा लम्बे सफर की
हाशिए पर ही खड़ी चुपचाप अब तक
देखना है तपस्या युग की
रहेगी बांझ कब तक।।
अनलिखा भवितव्य है इस त्रासदी का
हूँ अकेला भगीरथ शापित सदी का
चल पड़ा हूँ अब धरा पर
संतरण होगा नदी का।।
सूर्य मेरे!
लो विदा अध्याय के अगले चरण की
सांध्य वेला-दीपमाला के वरण की।।
रोशनी तो है विरासत यात्रा की
मैं चलूंगा
क्योंकि चलकर ही
पहुँच पाया यहाँ तक।।
क्योंकि चलकर ही पहुँच पाया यहाँ तक
कौन जाने - और चला है कहाँ तक
यात्रा लम्बे सफर की
हाशिए पर ही खड़ी चुपचाप अब तक
देखना है तपस्या युग की
रहेगी बांझ कब तक।।
अनलिखा भवितव्य है इस त्रासदी का
हूँ अकेला भगीरथ शापित सदी का
चल पड़ा हूँ अब धरा पर
संतरण होगा नदी का।।
सूर्य मेरे!
लो विदा अध्याय के अगले चरण की
सांध्य वेला-दीपमाला के वरण की।।
रोशनी तो है विरासत यात्रा की
मैं चलूंगा
क्योंकि चलकर ही
पहुँच पाया यहाँ तक।।
यह कविता बहुत अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंकविता पढ़कर दिल में आया कि कह दूं-
तू चलेगा तो मैं भी चलूंगा।
पांव हैं तो चलना ही पड़ेगा।
घाव है तो ढकना ही पड़ेगा।
तू भी चल और मैं भी चलूं।
साथ दोनों चलेंगे तो हल मिलेगा।
चलने का तभी फल मिलेगा।
अकेले सफ़र कोई तय नहीं होता।
एक साथी ज़रूरी है सफ़र में।
मुश्किलें बहुत आती हैं डगर में।
चलना ही है तो एक दिशा में चलें।
कहीं तो पहुंच ही जाएंगे,
कभी न कभी एक रोज़।
यही एक आस है,
जिसके लिए चलना पड़ेगा।
नहीं चलेंगे तो यह आस भी न बचेगी।
आस क़ायम रहे, यह ज़रूरी है।
इसीलिए चलना बहुत ज़रूरी है।
Please see
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