शनिवार, 7 अप्रैल 2012

"पापूलर लिट" हिन्दी साहित्य पर नया हमला

हम इस पोस्ट से महेन्द्र नेह के संपादन में प्रकाशित सामाजिक यथार्थवादी साहित्य की पत्रिका अभिव्यक्ति के मार्च, 2012 में प्रकाशित 38वें अंक की सामग्री को आप के समक्ष प्रस्तुत करना आरंभ कर रहे हैं। इस पोस्ट में प्रस्तुत है इस अंक का संपादकीय


वैश्विक बाजार व्यवस्था और विकासवाद के चेहरे पर चढ़ी नकाब जैसे-जैसे उतरती जा रही है, वैसे-वैसे ही वह पहले से अधिक आक्रामक, नंगी और अनैतिक होती जा रही है। तीसरी दुनिया के आर्थिक-संसाधनों को हड़पने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ का चार्टर, जिसके बनाने में प्रमुख भूमिका साम्राज्यवादी देशों की ही थी, उन्होंने ही उसकी तमाम मर्यादाओं, नियमों व कानूनों को ताक पर रख दिया। अत्याधुनिक हथियारों के बल पर ईराक और अफगानिस्तान की राष्ट्रीय प्रभुसत्ता को ‘‘रासायनिक हथियारों पर पाबंदी’’ और ‘‘आतंकवाद’’ से लड़ने के नाम पर निर्ममतापूर्वक कुचल दिया गया। इंसानी बस्तियों और अस्पतालों पर मिसाइलों से हमले किये ही नहीं गये, उन्हें दुनिया भर के टी.वी. चैनलों पर दिखाया भी गया। लाखों बेगुनाहों के कत्ले-आम के दृश्य ‘मनोरंजन-चैनलों’ पर प्रसारित हुए और लम्बे अरसे से अनुकूलित कर दिये गये दिल-ओ-दिमागों व जबानों से कोई ऐसी चीख नहीं निकली, जिसके समवेत-स्वर पूरी तीसरी दुनिया में गूंजते।

पिछली शताब्दी में जब साम्राज्यवादी अमेरिका ने हिरोशिमा व नागासाकी पर बमबारी की थी तो पूरी दुनिया ने इसके विरूद्ध भारी रोष व्यक्त किया था। आज भी उस काले-दिवस की स्मृति में शांति-सभाऐं होती हैं। वियतनाम पर हुए हमलों के प्रतिकार में दुनिया भर में ‘‘मेरा नाम तेरा नाम वियतनाम-वियतनाम’’ के नारे गूंज उठे थे और अंततः विश्व जनमत के दबाव में अमेरिका को वियतनाम से भागने के लिए विवश होना पड़ा था।

लेकिन वर्तमान परिदृश्य पिछली शताब्दी के परिदृश्य से भिन्न है। जब देश के कांग्रेसी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर भाजपा के नरेन्द्र मोदी तक विकासवाद के भागीरथ बनने पर गर्व कर रहे हों तथा पिछले वर्ष पश्चिम बंगाल व केरल में सत्ताच्युत हुई वाम-सरकारों ने भी ‘सेज’ लागू करके देशी-विदेशी कम्पनियों के लिए विकास की वैतरणी में नहाने से गुरेज करना छोड़ दिया हो, तब स्थितियॉं अधिक पेचीदा व चिंतनीय बन जाती हैं। ऐसी स्थितियाँ, जन-प्रतिरोध से भयभीत बाजारवाद को पुनः पुनः नये चोले पहनकर जनता को लूटने और विभ्रमित करने के अवसर प्रदान करती हैं। हिन्दी-साहित्य की दुनिया में यद्यपि विकासवाद व बाजारवाद की तमाम प्रवृत्तियॉं आधुनिकता, समकालीनता और उत्तर आधुनिकतावाद के नाम पर पहले से मौजूद व सक्रिय हैं, लेकिन वे विजेता की भूमिका में नहीं हैं। हाँ, उन्होंने इतनी सफलता अवश्य अर्जित कर ली है कि यदि किसी प्रगतिशीलता या जनवादी लेबल धारण करने वाले साहित्यकार को आधुनिक, समकालीन, संरचनावादी आदि भी कह दिया जाये तो उसे कोई तकलीफ नहीं होती। कोई सेठाश्रयी संस्थान, विदेशी धन से संचालित फाउंडेशन या फिर कोई साम्प्रदायिक महन्त उसे पुरस्कृत कर दे तो वह डॉ. रामविलास शर्मा और यादवचन्द्र की तरह उसे ठुकराने का साहस नहीं कर पाता।

न दिनों ‘पापूलर लिट’ के नाम से हिन्दी साहित्य पर बाजारवादी हमले की नई पहलकदमियॉं हो रही हैं। यहाँ ‘हमला’ शब्द हमारा गढ़ा हुआ नहीं है, ‘पापूलर लिट’ के नियोजक स्वयं अपनी इस कारगुजारी को ‘आक्रामक’ नाम से ही विभूषित करते हैं। पिछले दिनों ‘दैनिक भास्कर’ के रविवारीय पृष्ठ पर एक समाचार प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक था ‘‘हिन्दी में शुरू हुआ पॉपुलर लेखन’’। नई दिल्ली के संवाददाता विवेक गुप्ता की इस रिपोर्टिंग में कहा गया है कि ‘‘अंग्रेजी के अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशकों के हिन्दी क्षेत्र में आने के बाद ‘पॉपुलर लिट’ की एक नई श्रेणी बन रही है, जिसके लिए प्रकाशक युवाओं को पसन्द आने वाले विषय और ‘आक्रामक’ मार्केटिंग को तरजीह दे रहे हैं।’’ आगे कहा गया है कि ‘‘पेंगुइन, हार्पर कॉलिंस जैसे अंतर्राष्ट्रीय संस्थान न सिर्फ हिन्दी के युवा लेखकों की कृतियों को प्रकाशित कर रहे हैं, बल्कि सुन्दर कलेवर और मार्केटिंग-प्रचार की रणनीतियों के सहारे ज्यादा से ज्यादा पाठकों को आकर्षित कर रहे हैं।.... हापर कॉलिंस की हिन्दी सम्पादक मीनाक्षी ठाकुर बताती हैं कि उनका संस्थान हर साल कम से कम तीन लेखकों की पहली किताब छापना चाहता है। निरूपम भी ऐसी ही बात करते हैं। किताबों को आकर्षक रूप देना और ‘आक्रामक’ मार्केटिंग करना भी इनकी रणनीति का हिस्सा है।’’ इस ‘आक्रामक’ मार्केटिंग की भाषा का विकास हिन्दी में आधे शब्द अंग्रेजी के मिश्रित कर बाजारू ‘हिंग्लिश’ बनाया जा रहा है। इस तरह हिन्दी के स्वाभाविक भाषाई रूप को भी नष्ट किया जा रहा है।

यपुर में पिछले कुछ वर्षों से आयोजित किया जा रहा ‘लिटरेचर फेस्टीवल’ भी हिन्दी में अंग्रेजी साहित्य के बाजारवादी प्रकाशकों का एक नियोजित हमला है। यह अप्रत्याशित नहीं है कि इस कथित अंतर्राष्ट्रीय जयपुर लिट फेस्ट में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों, देश-विदेश की सरकारों व संस्थाओं ने प्रतिदिन करीब एक करोड़ रूपया इसे पॉपुलर बनाने के लिए अनुदान दिया। अनुदान देने वाली इन कम्पनियों में कॉमनवेल्थ खेलों में हुए घोटालो में शामिल कंस्ट्रक्शन कम्पनी डी.एस.सी. व रियो टिंटो, कोकोकोला जैसी मानव अधिकार हनन के गम्भीर आरोपों में शामिल कम्पनियॉं तो हैं ही रॉयल डच शेल जैसी कम्पनी भी है जो नाइजीरियाई कवि केन सारो वीवा की संवैधानिक हत्या तक में शामिल रही है। इस वर्ष के जयपुर फेस्टीवल में जिस तरह से सलमान रूश्दी के वर्षों पुराने उपन्यास ‘सैटनिक वर्सेज’ को मुद्दा बनाकर मीडिया द्वारा ‘आक्रामक’ रिपोर्टिंग की गई तथा अल्पसंख्यक तत्ववादियों द्वारा प्रदर्शन और मंच पर राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सहित राजे-रजवाड़ों और मंत्रियों- नौकरशाहों का जमघट मौजूद रहा, वह इस साहित्यिक मेले के गैर-साहित्यिक इरादों की कलई खोलने के लिए पर्याप्त है। यदि इसमें जावेद अख्तर, गुलजार, अशोक चव्रळधर जैसे सेलेब्रिटी लेखक शामिल होते हैं तो कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन हिन्दी के बहुत से नामवर प्रगतिशील लेखक भी यदि इस भेड़िया-धंसान में शामिल हो जाते हैं तो यह चिंतनीय विषय बन जाता है।

ह प्रगतिशील लेखक संघ की हीरक जयंती का वर्ष है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना न केवल हिन्दी में अपितु समस्त भारतीय भाषाओं में एक आंदोलन के रूप में होना भारत के सांस्कृतिक इतिहास की एक युगान्तरकारी घटना है। शायद ही किसी अन्य साहित्यिक- सांस्कृतिक आंदोलन ने इतनी बड़ी संख्या में लेखक-समुदाय व संस्कृतिकर्मियों को मेहनतकश समुदाय श्रमिकों-किसानों व आजादी के पक्ष में लिखने तथा साम्राज्यवादी-सामंती ताकतों द्वारा अहर्निश फैलाये जा रहे अंधेरे के विरूद्ध फासीवाद और साम्प्रदायिकता के खिलाफ मोर्चाबंदी के लिए प्रेरित किया हो। हम प्रगतिशील लेखक संघ की उस मुनष्य पक्षधर ऐतिहासिक भूमिका का अभिनन्दन करते हैं तथा उसकी विरासत को आगे बढ़ाने के लिए लेखकों व कलाकारों से एक बार पुनः अपनी लेखनी पर धार धरने की अपील करना चाहते हैं। साथ ही यह भी कहना चाहते हैं कि ‘‘ए विप्लव के थके साथियों, विजय मिली, विश्राम न समझो’’ तथा ‘‘दो नावों पर पग रखने से सागर पार नहीं होने का’’।

ह समय गहरे आत्म-निरीक्षण और साम्राज्यवादी सांस्कृतिक हमले के विरूद्ध मजबूती के साथ खड़े होकर उसका प्रतिरोध करने, सामूहिक जत्थेबन्दी द्वारा मुकाबला करने तथा श्रमजीवी जन-गण के कष्टों और उसकी अपराजेय शक्ति को साहित्य के केन्द्र में पुनर्स्थापना का है। इस ऐतिहासिक जिम्मेदारी को जागरूक रचनाकारों, विशेष रूप से प्रगतिशील-जनवादी लेखकों को समझना होगा तथा बाजारवादी मेलों की चकाचौंध से प्रभावित न होकर जिम्मेदार लघु पत्रिकाओं व लेखक संगठनों के जरिये नई वैकल्पिक सृजन ऊष्मा का संचार हिन्दी के व्यापक पाठक समुदाय के बीच करना होगा। इसी दिशा में 24-25-26 मार्च को ‘विकल्प’ अखिल भारतीय जनवादी सांस्कृतिक साहित्यिक मोर्चा का बिहार राज्य सम्मेलन, छपरा में होने जा रहा है। इस सम्मेलन में मोर्चा के संस्थापक अध्यक्ष यादवचन्द्र व महामंत्री शिवराम द्वारा प्रारम्भ किये गये जन सांस्कृतिक-साहित्यिक अभियान को जन-गण तक ले जाने के बारे में गम्भीर चर्चा व सृजनात्मक गतिविधियॉं होंगी तथा समानधर्मा सांस्कृतिक लेखक संगठनों के साथ संयुक्त मोर्चा गठित करने पर भी विचार-विमर्श किया जायेगा। पिछले दिनों गहलोत सरकार ने राजस्थान साहित्य अकादमी के अध्यक्ष पद पर वरिष्ठ प्रगतिशील लेखक वेद व्यास जी की नियुक्ति की है। हम इसका स्वागत करते हैं। अकादमियों का काम आजकल अपने चहेते लेखकों को पुरस्कार व अन्य सुविधाएँ बाँटने तक सिमट गया है। हम व्यासजी से अपेक्षा करते हैं कि वे इससे आगे बढ़कर जन पक्षधर लेखन के लिए वातावरण बनाने में सार्थक भूमिका निभाएंगे।

‘अभिव्यक्ति’ का यह अंक भी उसी दिशा में प्रेरित है। इस अंक पर हम लेखक-मित्रों व पाठकों की राय की प्रतीक्षा करेंगे तथा आपसे अनुरोध भी है कि ‘अभिव्यक्ति’ को सच्चे अर्थों में जनपक्षधर पत्रिका बनाने में अपना सहयोग करें। इस अंक में हमने कई रचनाकार साथियों को सृजनात्मक-श्रद्धांजलि दी है, उनकी रचनाओं की बानगी भी। इनके अलावा भी कई महत्वपूर्ण रचनाकार इस बीच हमसे बिछुड़ गये, जिनमें प्रगतिशील ‘वसुधा’ के सम्पादक प्रो. कमला प्रसाद, कथाकार विलास गुप्त, इतिहासकार प्रो. रामशरण शर्मा, प्रसिद्ध व्यंग लेखक श्रीलाल शुक्ल, उर्दू कथाकार साजिद रशीद, असमिया लेखिका इंदिरा गोस्वामी आदि प्रमुख हैं। हम उन तमाम लेखकों, रचनाकारों के योगदान को भी स्मरण करते हुए नमन करते हैं।

- महेन्द्र नेह

5 टिप्‍पणियां:

  1. सौ गुनाहों का एक गुनाह है कमज़ोरी।
    कमज़ोर को ताक़तवर अपने ज़ुल्म का निशाना बनाया ही करता है।
    जो लोग मज़दूरों के हिमायती बनकर खड़े हुए ख़ुद उन्होंने अपने लिए कितना इकठ्ठा किया और मज़दूरों को क्या दिया ?
    यह भी देखना चाहिए।

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  2. अनवर भाई,
    आप की यह टिप्पणी उक्त संपादकीय के संबंध में प्रासंगिक नहीं है।

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  3. apki post ka charcha aaj Bloggers meet weekly 38 me
    http://www.hbfint.blogspot.in/2012/04/38-human-nature.html

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  4. सही कहा है आपने -
    "यह समय गहरे आत्म-निरीक्षण और साम्राज्यवादी सांस्कृतिक हमले के विरूद्ध मजबूती के साथ खड़े होकर उसका प्रतिरोध करने, सामूहिक जत्थेबन्दी द्वारा मुकाबला करने तथा श्रमजीवी जन-गण के कष्टों और उसकी अपराजेय शक्ति को साहित्य के केन्द्र में पुनर्स्थापना का है। "

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  5. हिन्दी फ़ोरम पर आपका लिंक देखा तो इधर आना हुआ .
    अमेरिका का पूंजीवाद लोगों के ज़मीर बाक़ी नहीं छोड़ता यह सच है.
    लेकिन लोग भी तो बिकने पर आमादा हैं.
    किसे बचाया जाये और कौन बचाए ?
    बुरे रास्ते से माल आ रहा हो तो कोई नेकी पर चलकर भूखा क्यों मरे ?
    अब लोगों के लिए सब कुछ पैसा हो चला है.

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